Sunday, June 22, 2014

चलो एक वृक्ष लगाएं !


चलो एक वृक्ष लगाएं
करें पुण्य का काम
जो दे हम सब को
जीवन भर आराम
चलो एक वृक्ष लगाएं |

धरती माँ का गहना है ये
है ये उनका रूप श्रृंगार
पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा
देता हमको जीवन दान
चलो एक वृक्ष लगाएं |

बरगद, पीपल, नीम, पाकड़
तुलसी, अक्षय, पारिजात
ये सब है उपहार प्रकृति का
मिला है सबको एक समान
चलो एक वृक्ष लगाएं |

जल का संग्रह करना है अब
सोच लें गर हम सब इक बार
वर्षा जल संचित कर के हम
भर लें जल भण्डार अपार
चलो एक वृक्ष लगाएं |

गंगा को मैली कर-कर के
किया है हमने जो अपराध
पुनः उसे स्वक्ष करने का
संकल्प लें, बढ़े हम साथ
चलो एक वृक्ष लगाएं ||

मीना पाठक 


Saturday, June 14, 2014

पापा की कुछ यादे कुछ बातें

·                                 सभी को फादर्स डे पर अपने-अपने पापा के लिए कुछ न कुछ लिखते देख रही हूँ, पढ़ रही हूँ और अपनी आँखों में आँसू भर कर सोच रही हूँ कि मै क्या लिखूँ ? ..११ या १२ साल की उम्र थी तभी पापा इस दुनिया से चले गये | उस समय माँ को ११ महीने के छोटे भाई को गोद में लिए रोते-बिलखने देख मै भी रोई पर समझ नही पायी कि मैंने खुद क्या खो दिया | पापा के अंतिम दर्शन भी मैं नहीं कर पायी थी जिसका जीवन भर अफसोस रहेगा |..जिस दिन पापा इस दुनिया से गये शायद उसी दिन से मुझमें आत्मविश्वास की कमी हो गई जो आज तक है | आखिरी के दो वर्ष पापा के साथ रही | माँ बताती हैं कि पापा पर अपने छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी थी इसीलिए वो माँ के साथ हम सब को गाँव में ही रखते थे | जब तीनों बुआ की शादी हो गई और छोटे चाचा की नौकरी पापा के प्रयासों से लग गई तब पापा ने माँ को अपने पास बुलाया | होश संभालने के बाद कुल दो वर्ष पापा के सानिध्य में रही हूँ | पापा कानपुर आर्डिनेन्स में कार्यरत थे | रोज सुबह सायकिल से जाते हुए देखती और शाम को आते हुए, रात की ड्यूटी भी लग जाती थी अक्सर | माँ जब अंगीठी जलाने के लिए गोले बनाती तब माँ को धूप से बचाने के लिए पापा को छाता ले कर खड़े होते हुए देखा है| जब पापड़ बनाती तब भी पापा छाता ले कर खड़े हो जाते| माँ की किसी डिमांड पर स्नेह से समझाते हुए देखा है| कुल दो जोड़ी कपड़े, पैरों में साधारण सी चप्पल| पर, यहाँ से ले कर गाँव तक सभी का ध्यान रखते | कुल वही दो वर्ष की यादें संजोये रखती हूँ | ऐसा नही है कि आज फादर्स डे है इसलिए पापा को याद कर रही हूँ| पापा की याद हर उस समय आती है जब किसी बच्ची को अपने पापा की उंगुली थामे जाते देखती हूँ| जब भी मुझे हल्की सी भी ठोकर लगती है या जब भी मुझे किसी मजबूत सहारे की जरुरत होती है तब पापा और बस् पापा ही याद आते हैं| तब सोचने लगती हूँ कि शायद इसीलिए पापा को सभी बरगद का पेड़ कहते हैं | पापा का मतलब मैं खुद’| पर जब पापा ही नही हैं तो मैकहाँ हूँ..जैसे पेड़ से टूटा हुआ पत्ता जिसे हवा का हल्का सा झोंका भी एक जगह से उठा कर दूसरी जगह पटक देता है| पत्ता चोट से कराहता तो है पर उसे वो पेड़ नही मिलता जो सहारा दे सके, सम्भाल सके| आखिर में वो पीला पड़ने लगता है और एक दिन सूख जाता है| फिर या तो उसे कोई पैरों तले कुचल कर मिट्टी में मिला देता है या चूल्हे में झोंक कर जला देता है | पापा की तस्वीर है मेरे पास| पर मैं कभी उस तस्वीर को निगाह भर नहीं देख पाती हूँ| आँखे आंसुओं से लबालब हो जातीं है और तस्वीर धुंधली हो जाती है...और क्या-क्या लिखूँ....Pc की स्क्रीन बार-बार धुँधली हो जा रही है | आप फादर्स डे पर अपने पापा से बस इतना ही कहना चाहूँगी कि :- पापा आप जहाँ भी हों खुश रहिएगा| यहाँ सब ठीक है| आप की कमी बहुत खलती है| जीवन में सब कुछ है पर आप की रिक्तता कभी भर नही पायी और न ही कभी भरेगी | बहुत याद करती हूँ| आप को ढूंढती हूँ पर पता है आप कभी नही मिलेंगे | और ज्यादा क्या लिखूँ आप जहाँ भी हैं वहीं से सब देख रहे हैं.. कुछ छुपा नही आप से ...एक इच्छा जो आख़िरी इच्छा भी है, जो कभी पूरी नही होगी ये भी जानती हूँ पर फिर भी आप से कहूँगी...बस एक बार, बस एक बार अपने सीने से मुझे लगा लीजिए बस...तरस रही हूँ आप के स्नेह को...आप के स्नेह भरे स्पर्श को...फिर मेरे सारे जख्म भर जायेगे ..पापा...बस एक बार......................|” आप की लाडली
मीना धर


Wednesday, June 11, 2014

मेरे लाल भूल ना जाना ये बात !!

मेरे बच्चे !!
खुश रहो तुम हरदम 
आये न कभी तुम्हारे 
जीवन में कोई गम 
हो माँ शारदे की अनुकम्पा
भरपूर हो स्वास्थ, संपदा
मरे बच्चे !!
याद रखना हमेशा
जीवन में एक अच्छा इंसान बनना
साथ तुम्हारे हो जो
करना उसका आदर
बहे न कभी तुम्हारे कारण
उसकी आँख का काजल
करना न कभी तुम
प्रकृति का दोहन
लेना उससे उतना ही
जितनी हो जरुरत
अंत में है मेरा आशीर्वाद इतना
घर-परिवार, समाज, राष्ट्र
हर जगह हो तुम्हारा नाम ऊँचा
मेरे लाल !!
बढ़ते हुए निरंतर आगे
भूल न जाना ये बात
कि, पुराने वाले घर में
रहती है तुम्हारी माँ !!

(बेटे यश के जन्मदिवस पर कुछ पंक्तियाँ)

Friday, June 6, 2014

नदी


वो नदी जो गिरि
कन्दराओं से निकल
पत्थरों के बीच से
बनाती राह

कितनो की मैल धोते
कितने शव आँचल मे लपेटे
अन्दर कोलाहल समेटे
अपने पथ पर,

कोई पत्थर मार
सीना चिर देता 
कोई भारी चप्पुओं से
छाती पर करता प्रहार
लगातार,

सब सहती हुई
राह दिखाती राही को
तृप्त करती तृषा सब की
अग्रसर रहती अनवरत
तब तक, जब तक
खो न दे 
आस्तित्व |

Wednesday, May 21, 2014

धरती की गुहार अम्बर से


प्यासी धरती आस लगाये देख रही अम्बर को |
दहक रही हूँ सूर्य ताप से शीतल कर दो मुझको ||

पात-पात सब सूख गये हैं, सूख गया है सब जलकल
मेरी गोदी जो खेल रहे थे नदियाँ जलाशय, पेड़ पल्लव
पशु पक्षी सब भूखे प्यासे हो गये हैं जर्जर
भटक रहे दर-दर वो, दूँ मै दोष बताओ किसको
प्यासी धरती आस लगाए देख रही अम्बर को |

इक की गलती भुगत रहे हैं, बाकी सब बे-कल बे-हाल
इक-इक कर सब वृक्ष काट कर बना लिया महल अपना
छेद-छेद कर मेरा सीना बहा रहे हैं निर्मल जल
आहत हो कर इस पीड़ा से देख रही हूँ तुम को
प्यासी धरती आस लगाए देख रही अम्बर को |

सुन कर मेरी विनती अब तो, नेह अपना छलकाओ तुम
गोद में मेरी बिलख रहे जो उनकी प्यास बुझाओ तुम
संतति कई होते इक माँ के पर माँ तो इक होती है
एक करे गलती तो क्या देती है सजा सबको ?
प्यासी धरती आस लगाए देख रही अम्बर को
|

जो निरीह,आश्रित हैं जो, रहते हैं मुझ पर निर्भर
मेरा आँचल हरा भरा हो तब ही भरता उनका उदर
तुम तो हो प्रियतम मेरे, तकती रहती हूँ हर पल
अब जिद्द छोड़ो इक की खातिर दण्ड न दो सबको
प्यासे धरती आस लगाए देख रही अम्बर को
|

झड़ी लगा कर वर्षा की सिंचित कर दो मेरा दामन
प्रेम की बूंदों से छू कर हर्षित कर दो मेरा तनमन
चहके पंक्षी, मचले नदियाँ, ओढूं फिर से धानी चुनर 
बीत गए हैं बरस कई किये हुए आलिंगन तुमको
प्यासी धरती आस लगाए देख रही अम्बर को ||


सोचा न था

सोचा न था मंजर यूँ बदल जायेंगे
आसमां से ज़मी पर उतर आएँगे,
चलते थे जो फूलों भरी राह पर
पाँव वो लहु-लूहान हो जाएँगे
सोचा न था मंजर यूँ बदल जायेंगे |

महकता था दामन जो इत्र की सुगंध से
दुर्गन्ध में पसीने की बदल जाएँगे
रहते थे जो रौशनी की चकाचौंध में
यूँ अंधेरों में मुंह अपना छुपाएंगे
सोचा न था मंजर यूँ बदल जायेंगे  |

आँचल में छुप-छुप किलकारियां भरते थे जो
अब सीना तान दिखाएँगे
कहा करते थे आने ना देंगे आँसू कभी
वही आँखों में समंदर भर जाएँगे
सोचा न था मंजर यूँ बदल जाएँगे |

दौड़ कर लग जाते थे कभी जो सीने से
मुंह फेर कर अब चले जाएँगे,
भरोसे की चादर ओढ़, चैन से सोते थे बेखबर हम
चादर वो खींच कर ले जाएँगे
सोचा न था मंजर यूँ बदल जाएँगे ||
 

Thursday, May 1, 2014

हे स्त्री !!

 उठो हे स्त्री !
पोंछ लो अपने अश्रु 
कमजोर नही तुम 
जननी हो श्रृष्टि की 
प्रकृति और दुर्गा भी 
काली बन हुंकार भरो,
नाश करो!
उन महिसासुरों का 
गर्भ में मिटाते हैं  
जो आस्तित्व तुम्हारा,
संहार करो उनका जो 
करते हैं दामन तुम्हारा 
तार-तार,
करो प्रहार उन पर 
झोंक देते हैं जो
तुम्हें जिन्दा ही 
दहेज की ज्वाला में,
उठो जागो !
जो अब भी ना जागी 
तो मिटा दी जाओगी और 
सदैव के लिए इतिहास 
बन कर रह जाओगी ||

शापित

                           माँ का घर , यानी कि मायका! मायके जाने की खुशी ही अलग होती है। अपने परिवार के साथ-साथ बचपन के दोस्तों के साथ मिलन...