Sunday, May 8, 2016

माँ है तो हम हैं

दीदी माँ ऋतंभरा जी मंच पर आसीन भागवत कथा सुना रही थीं | सभी भक्त तन्मयता से सुन रहे थे | मैं भी टी.वी. के सामने बैठी सुन कर आनन्दित हो रही थी | यशोदा माँ के वात्सल्य का वर्णन हो रहा था | मुख्य कथा को छोड़ दीदी माँ ने भक्तों को एक दूसरी कथा सुनानी आरम्भ कर दी |
एक बार नारद मुनि पृथ्वी पर घूम रहे थे | उन्होंने माताओं को अपने शिशुओं पर ममता उड़ेलते देखा और सोचने लगे कि ये पृथ्वीवासी कितने भाग्यशाली हैं जो इन्हें माँ का सुख मिला है जो स्वर्ग में भी दुर्लभ है | इसी सोच में डूबे वह विष्णु जी के सामने उपस्थित होते हैं |  विष्णुदेव उनकी मन:स्थिति को भापते हुए पूछते हैं | नारद जी उन्हें सब कुछ बताते हैं तब भगवान विष्णु जी कहते हैं कि मातृ सुख तो केवल पृथ्वी वासियों को ही प्राप्त है और अगर किसी भी देवता को माता का वात्सल्य प्राप्त करना हो तो उसे पृथ्वी पर मनुष्य रूप में जन्म लेना होगा तभी यह संभव है | शायद इसी लिए भगवान ने धरती पर कई बार अवतार लिया है |
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस माँ के वात्सल्य के लिए देवताओं को भी मानव रूप में धरती पर अवतरित होना पड़ा उस माँ के लिए हम कोई एक दिन (डे) कैसे निर्धारित कर सकते हैं |
पूतना के विष लगे स्तनों का पान करने के कारण भगवान कृष्ण ने पूतना को माँ कहा और उसे स-सम्मान स्वर्ग में स्थान दिया |
माता कैकयी के कारण राम ने सहर्ष चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार कर लिया पर माता कैकयी को उन्होंने अपनी माता से बढ़ कर सम्मान दिया |
हम उसी राम और कृष्ण की संतान हैं जिन्होंने कहा है कि
माँ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है, माँ प्रकृति है, माँ देवी है, माँ अखिल सृष्टि की संचालक है, पालक है | माँ के बिना हमारा कोई आस्तित्व नहीं | हमारे ऋषि-मुनियों ने मातृदेवो भव कहा है | हमें बचपन से संस्कार भी यही मिला है कि सुबह आँख खुलते ही सबसे पहले धरती को स्पर्श कर माथे से लगाना चाहिए फिर निज जननी के चरण स्पर्श कर दिन की शुरुआत करनी चाहिए |
भारतीय संस्कृति में माँ के लिए वर्ष में एक दिन नहीं होता बल्कि यहाँ तो माँ के आशीर्वाद के बिना कोई दिन, कोई त्यौहार संभव ही नहीं है फिर माँ के लिए हम किसी एक दिन को त्यौहार की तरह कैसे मना सकते हैं ? माँ तो हमारी रगो में प्राण वायु बन कर प्रवाहित होती है | माँ है तो हम हैं, हमारा अस्तित्व है |
हमारी भारतीय संस्कृति की परम्परा तो यही है; पर जब से हमारी भारतीय संस्कृति में पाश्चात्य संस्कृति ने सेंध लगाई है तब से ना जाने कितने
दिन (डे) त्यौहार बन कर हमारी जिंदगी का हिस्सा बनते जा रहे हैं | विदेशी संस्कृति को अपनाते लोग अपनी खुद की सभ्यता और संस्कृति को भूलते जा रहे हैं |
वर्ष में किसी एक दिन माँ को याद कर लेना, उनके प्रति आभार प्रकट कर उनको तोहफा दे कर अपने कर्तव्यों से इति-श्री कर लेना विदेशों की परम्परा होगी हमारी नहीं; पर आज तो विदेशी रंग में ही हम रचते-बसते जा रहे हैं | विदेशों की व्यस्ततम जिंदगी में शायद इन रिश्तों के लिए समय नहीं मिलता होगा तभी उन लोगो ने इन
दिनों (डे) का चलन आरम्भ किया होगा | आज वही स्थिति हमारे देश में होती जा रही है | पहले हमारा परिवार माता-पिता के बिना पूरा नहीं होता था आज की स्थिति बिलकुल भिन्न है | आज परिवार में माता-पिता के लिए स्थान ही नहीं है | परिवार हम दो हमारे दो तक सीमित हो गया है | हम अपने रीति-रिवाज को छोड़ विदेशी रीति-रिवाज अपनाते जा रहे हैं और जाने-अनजाने यही रीति-रिवाज अपनी अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करते जा रहे हैं |
जो माँ हमारी रगो में प्राण वायु बन कर प्रवाहित होती है उसी माँ के लिए हमारे घरों में स्थान नहीं है | क्यों कि उसके लिए शहर में तमाम वृद्धाश्रम खुल गए हैं | आज हमें माँ की लोरियाँ, माँ की दी हुई सीख, माँ के दिए हुए संस्कार आउट ऑफ फैशन लगते हैं |
हम कहाँ आ गए हैं ? यह सोचना होगा | आधुनिकता कोई बुरी बात नहीं पर अपनी सभ्यता,संस्कृति और परम्परा को त्याग कर जो आधुनिकता मिले वह हमें मंजूर नहीं होना चाहिए | बच्चे अनुकरण करते हैं, इस लिए हम जो अपने बच्चो से अपेक्षा करते हैं पहले वह हमें स्वयं करना होगा | नहीं तो कल हमारा भी स्थान वहीं वृद्धाश्रम में होगा |
माँ हमारी सृष्टा है, माँ हमारी पालन कर्ता है, माँ से ही हमारा आस्तित्व है, माँ है तो हम है | हम भग्यशाली हैं कि हमारे सिर पर माँ का हाथ है | 
माँ के चरणों में हर पल, हर दिन हमारा नमन ! वन्दन !

मीना पाठक


 

Monday, March 28, 2016

जब ना रहूँगी मैं !


ढूंडोगे मुझे
इन कलियों में
पुष्पों की पंखुड़ियों में
जो खिलते ही मुझसे बतियाते हैं
छत पर दाना चुनते
पंक्षियों के कलरव में
जो देखते ही मुझे, आ जाते हैं
भोर के तारे में
जो रोज मेरी बाट जोहता है
और मिल-बतिया कर विदा होता है
प्रभात की पहली किरण में
जिसके स्वागत  में
बाँहें पसारे खड़ी रहती हूँ नित्य
घर के कोनों में

धूल पटी खिड़कियों में
धुँधलाये आईने में
जो मेरी उँगलियों का स्पर्श पाते ही
मुस्कुरा उठते हैं
अंत में ढूंडोगे मुझे !
बेतरतीब आलमारी की किताबों में
मेरी सिसकती, कराहती कहानियों
और गोन्सारी की धधकती आग से
पतुकी में भद्-भदाती गर्म रेत सी
कविताओं में,
जब ना रहूँगीं मैं.... || 

मीना पाठक 

Thursday, December 31, 2015

बहुत याद आओगे तुम

सुनो !
तुम जा रहे हो ना
रोक तो नहीं सकती तुम्हें
मेरे वश में नहीं ये
पर तुम बहुत याद आओगे
क्यों कि
बहुत रुलाया है तुमने
पीड़ा से आहत कर
आँसुओं के सागर में डुबाया है तुमने
याद आओगे जब भी
रिसेगें सारे जख्म
धधकेगी क्रोध की ज्वाला
नफरतों का गुबार लिए अंतर में
बहुत याद आओगे तुम
क्यों कि
घिर गई थी जब
निराशाओं के भँवर में
राह ना सूझ रही थी
कोई इस जग में
अपनों में  बेगानों सी
खो गई थी तम में
तब तुमने संबल दिया
जीने का हौसला
आँखों में आँखें डाल
सामना करने की हिम्मत
अपने हक, सम्मान के लिए
आवाज उठाने की,

विरोध करने की ताकत
अपनेआप को साबित करने
और दुनिया को ये दिखाने की
कि मैं, मैं हूँ
तुम बहुत याद आओगे
क्यों कि
तुमने ही तो मुझको
मुझसे मिलाया है,
दुनिया कितनी खूबसूरत है
ये बताया है
प्रेम करना सिखाया है, खुद से
सच...बहुत याद आओगे तुम  ||
 







नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ
सादर
मीना पाठक

Monday, September 14, 2015

हिन्दी दिवस

हिन्दी दिवस ! आखिर क्यों आवश्यकता पड़ी अपने ही राष्ट्रभाषा को हिन्दी दिवस के रूप में मनाने की ? किसी एक दिन या एक पखवाड़े में हिन्दी का गुणगान कर के, हिन्दी के अध्यापकों को सम्मानित करके और काव्य-गोष्ठियाँ कर के हम अपने कर्तव्य से इतिश्री कर लेते हैं फिर सब भूल कर शामिल हो जाते हैं अंग्रेजी की दौड़ में | दुःख होता है कि जिस देश में लगभग पचास करोड़ लोग हिन्दी समझते और बोलते हैं उस भाषा को आजादी के इतने वर्षों बाद भी पूरी तरह राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला, आज भी वह अंग्रेजी की बौशाखी पर टिकी है | बड़े शर्म और क्षोभ का विषय है | हमारे देश के नेताओं की प्रवृत्ति है, हर एक विषय पर राजनीति करने की, आज इसी का परिणाम है कि अपने ही देश में हिन्दी, अंग्रेजी की बैशाखी पर राष्ट्रभाषा के पद पर दीन-हीन सी आसीन है | किसी भी देश की अपनी भाषा जब राष्ट्रभाषा के पद को सुशोभित करती करती है; उस में उस देश की तरक्की निहित होती है, कोई भी ऐसा गणतंत्र नहीं जो इतने वर्षों तक प्रतीक्षा करे | आइये थोड़ा इतिहास पर एक नजर डालते हैं |
भारत में मुस्लिम साम्राज्य के बाद हिन्दी का विकाश अप्रतिहत गति से हुआ | हिन्दी शासकीय संरक्षण ना मिलने पर भी राष्ट्रीय सम्पदा  की द्योतक बनी | हिन्दू, मुसलमान, आर्य, अनार्य, उतर-दक्षिण, शैव-वैष्णव आदि लोगों ने अपनी मान्यताओं के आधार पर हिन्दी को व्याख्यायित किया | सूफी संत जायसी, कुतुबन, मंझान आदि ने सूफी दर्शन और इस्लाम के स्वरूप को राष्ट्रभाषा हिन्दी में प्रस्तुत किया | कबीर, चैतन्य, नामदेव आदि की रागानुगा भक्ति हिन्दी में उपदेशित हुयी | क्या ये लोग हिन्दी प्रदेशों से थे ? चैतन्य सुदूर पूर्व बंगाल से थे, नामदेव मराठी संत , नरसी मेहता गुजरती बल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य .स्वामी रामानंद दक्षिण भारतीय , विद्द्यापति मैथिली केशव और तुलसी बुन्देली, रहीम और कुतुबन विजातीय थे, किन्तु सबके साहित्य एवं भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा हिन्दी रही | कबीर ने कहा-‘संस्कीरती कूप जल भाषा बहता नीर’ केशवदास की भाषिक क्रांति विशेष उल्लेखनीय है | केशव के हृदय ने स्वीकारा कि –
                  भाषा बोल न जानही, जिनके कुल के दास |
                  तिन्ह भाषा कविता करी, जड़मति केशवदास ||
इतना ही नहीं, वरन् पुनर्जागरण काल में जब अंग्रेजों के द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार हुआ, तो धार्मिक आंदोलन हुए | वे सभी आंदोलन हिन्दी माध्यम से हुए | खड़ी बोली हिन्दी का विकास बाईबल के अनुवादों से प्रारंभ हुआ और उसका साहित्यिक स्वरुप फोर्ट विलियम कालेज कलकत्ता ने किया | इंशाल्लाह खाँ हिन्दी के प्रथम खड़ी बोली प्रयोक्ताओं में से है | इसके अतिरिक्त गुजरात के स्वामी दयानंद और मोहन दास कर्मचन्द गाँधी, बंगाल के राजा राम मोहन राय और केशवचन्द्र सेन,महाराष्ट्र के लोकमान्य तिलक, पंजाब के स्वामी श्रद्धानंद ने हिन्दी को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया | आर्य समाज ने तो ये नियम तक बना दिया – (१)उसके प्रचारको तथा अनुयायियों को हिन्दी में लिखना है और बोलना चाहिए | (२) प्रचार के समस्त कार्य हिन्दी के प्रकाशनों द्वारा कराना चाहिए | (३) शिक्षा संस्थाओं में हिन्दी को उचित स्थान दिलाना चाहिए |
सन् 1885 ई० में राष्ट्र में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रूप में एक चेतना आई और देश में जागरण के लिए देश भी भाषा को आवश्यक समझा गया | इसी काल में पत्रकारिता का विकास हुआ और बंगाल से हिन्दी पत्रों का सर्वप्रथम प्रकाशन प्रारम्भ हुआ | इस काल में सम्पर्क भाषा के महत्व पर विचार करते समय देश के तत्कालीन जननायकों को हिन्दी का नाम याद आया, क्योंकि बहुत पहले से ही यही भाषा सम्पर्क भाषा के रूप में कार्य कर रही थी, ध्यातव्य है कि मुस्लिम और अंग्रेजी शासन की उपेक्षा के बावजूद ये कार्य हिन्दी में इसीलिए हुआ, क्योंकि यही ऐसी सर्वमान्य भाषा थी, जिसका प्रयोग सारे देश में हो रहा था और जिसे सर्वत्र समझा जा सकता था | इसीलिए  1 जुलाई 1928 ई० को यंग इंडिया में महात्मा गाँधी ने लिखा – यदि मैं तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा दिया जाना बंद कर देता | सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषा अपनाने के लिए मजबूर कर देता | जो आनाकानी करते उन्हें बर्खास्त कर देता | मैं पाठ्य पुस्तकें तैयार किये जाने तक इंतजार न करता |
उसके पूर्व लोकमान्य तिलक ने कहा था अभी कितनी भी भाषाएँ भारत में प्रचलित हैं, उनमे हिन्दी सर्वत्र प्रचलित हैं, इसी हिन्दी को भारतवर्ष की एकमात्र भाषा स्वीकार कर ली जाये, तो सहज ही में एकता संपन्न हो सकती है |
नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का मत था –“यदि हम लोगों ने मन से प्रयत्न किया तो वह दिन दूर नहीं, जब भारत स्वाधीन होगा और उसकी राष्ट्रभाषा होगी हिन्दी | किन्तु उसी काल में एक अंग्रेज ने टिप्पणी की थी जो भारतीयता पर व्यंग है –
भारत में जब तक देशभक्ति का जोर है, तभी तक हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाया जा सकता है, उसके बाद इस भाषा के क्षीण होते ही अंग्रेजी पुन: अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करेगी |

15 अगस्त सन् 1947 ई० को भारत स्वाधीन हुआ और देश की बागडोर कांग्रेस नेताओं के हाथ में आई | भारत के सम्प्रभुता सम्पन्न संविधान की 14वीं अनुसूची में क्षेत्रीय बोलियों को स्थान देते हुए घोषित किया गया कि देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा होगी | संविधान के इस निर्णय के साथ सहभाषा के रूप में अंग्रेजी को जोड़ा गया और आगामी 15 वर्षों तक जब तक हिन्दी का व्यापक परिवेश प्रशासनिक दृष्टि से नहीं बन जाता जब तक के लिए अंग्रेजी को सहभाषा बनाया गया और राष्ट्रपति को अधिकार दिया गया कि वह आयोगों का गठन करके भाषा का स्वरुप शासन के योग्य निर्धारित करा देंगे |
संविधान अपनी जगह रहा और दिशाएँ उस अंग्रेज विचारक के प्रवाह में बह गई | नये सत्ताधारियों ने अंग्रेजी को विवादस्पद बना दिया | कोई ऐसा गणतंत्र नहीं जो 15 वर्षों तक प्रतीक्षा करता | इसरायल की स्वतंत्रता के तत्काल बाद हिव्रू को राजभाषा बनाया गया और हिव्रू के माध्यम से इसरायल की प्रगति हुई, ऐसे ही और भी बहुत से देश हैं | कालांतर में हिन्दी को लादने का आरोप लगाया जाने लगा और इसकी आड़ में 1965 में हिन्दी प्रयोग के साथ अंग्रेजी भाषा के चलते रहने की बाध्यता अनिश्चित काल के लिए बढ़ा दी गई | केंद्र शासन ने न केवल केंद्र में, वरन् प्रान्तों से भी यही अनुरोध किया | 26 जनवरी  1965 में अंग्रेजी को अनिश्चितकाल तक के लिए हिन्दी के साथ चलते रहने की सर्वसम्मत स्वीकृति दे दी गई |
यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि हिन्दी का विरोध उन्ही नेताओं ने किया जो स्वतंत्रता से पूर्व हिन्दी के पक्षधर थे | भरत के कितने किसान और मजदूर ऐसे हैं जो अंग्रेजी की शिक्षा माध्यम बनाने में सक्षम हैं और अंग्रेजी बोल लेते हैं | प्रश्न भाषा का नहीं अपनी सत्ता और अस्मिता बनाए रखने की कुचेष्टा में राष्ट्रीय अस्मिता नष्ट करने का है |
राजगोपालाचारी हों, डा० सुनीति कुमार चटर्जी या पं० जवाहर लाल नेहरू ये सभी आजादी से पहले हिन्दी के समर्थक थे पर आजादी के बाद इन्हें अंग्रेजी में ही देश का विकाश नजर आने लगा | नेहरु ने तो अंग्रेजी को ज्ञान-विज्ञान का झरोखा तक कह दिया | शचीन्द्रनाथ बख्शी के शब्दों में
यदि अंग्रजी झरोखा है तो हिन्दी आँख, क्या हम झरोखे को बनाए रखे और अपनी प्यारी आँखों को जो जिस्म का हिस्सा है, फोड़ डालें | वस्तुतः यह एक राजनितिक विवाद है | राष्ट्र भाषा की उपेक्षा राष्ट्रद्रोह और सत्तालोलुपता का प्रतीक है |
इतिहास में जब भी जाती हूँ पढ़ कर दुःख होता है कि अगर भाषा के नाम पर राजनीति नहीं हुयी होती तो आज हमारी राष्ट्रभाषा अंग्रेजी की बैसाखी पर ना खड़ी होती |
आज समस्त विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा में हिन्दी का महत्व स्थापित हो चुका है तथा विश्वभर में हिन्दी का अध्ययन हो रहा है ऐसे में हिन्दी को तिरस्कृत करना एक षणयंत्र  ही लगता है | हिन्दी अपने आप में समर्थ होते हुए भी राजनीतिक विवादों के कारण आज अपने उचित स्थान पर नहीं है |
हिन्दी आगे बढ़ रही है; पर क्या उसकी स्थिति संतोषजनक है ? आज कहीं भी अंग्रेजी ना बोल पाने वाला खुद को हीन समझता है या उसे हीन समझा जाता है | स्कूलों में हन्दी के अध्यापक की तनख्वाह अंग्रेजी के अध्यापक से बहुत कम दी जाती है, ये भेद भाव क्यूँ ? यह किसकी जवाबदेही है ? हिन्दी को बढ़ावा देने के नाम पर करोड़ो रुपये मंत्रालयों को दिए जाते हैं | कहाँ जातें हैं ये रुपये ? अभी भोपाल में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन भी हिन्दी प्रदेशों को आकर्षित नहीं कर पायी | ये निराशाजनक स्थिति क्यूँ ?
हिन्दी को बढ़ाने के लिए सभी को अपना नजरिया बदलना होगा | हिन्दी को कमतर आँकना उसका अपमान है | हमें अपने बच्चों को हिन्दी का महत्व बताना होगा और उसके प्रति सम्मान की भावना जागृत करना होगा | अंग्रेजी को एक विषय के तौर पर पढ़ना बुरी बात नहीं; पर हिन्दी को कमतर आँकना हमें मंजूर नहीं | हिन्दी में बोलना शर्म की बात नहीं, किसी विजातीय भाषा को सम्मान देना और अपनी भाषा को तिरस्कृत करना शर्म की बात है | इसकी शुरुआत सबसे पहले हमें अपने घर से ही करनी होगी | गुड मोर्निंग से नहीं प्रणाम से दिन का आरम्भ करना होगा | भाषा माँ सरस्वती का मूर्त रूप है इस लिए अपने बच्चों में आरम्भ से ही इसका सम्मान और अराधना करने का संस्कार विकसित करना होगा तभी वो बड़े हो कर अपने भाषा का सम्मान करेंगे और एक दिन ऐसा आयेगा अब हिन्दी को किसी बैसाखी की आवश्यकता नहीं होगी और वह अपने आसन पर शान से विराजमान होगी |

हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा
हिन्दी हमारा मान है
हिन्दी से हम हिंदी हैं

देश हिन्दोस्तान है ||

मीना पाठक  

शापित

                           माँ का घर , यानी कि मायका! मायके जाने की खुशी ही अलग होती है। अपने परिवार के साथ-साथ बचपन के दोस्तों के साथ मिलन...