Monday, June 13, 2016

हेप्पी फादर्स डे

पूरे विश्व में जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाया जाता है | भारत में भी धीरे-धीरे इसका चलन बढ़ता जा रहा है | इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बढती भूमंडलीकरण की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है और पिता के प्रति प्रेम के इज़हार के परिप्रेक्ष्य में भी |
लगभग १०८ साल पहले १९०८ में अमेरिका के वर्जीनिया में चर्च ने फादर्स डे की घोषणा की थी | १९ जून १९१० को वाशिंगटन में इसकी आधिकारिक घोषणा कर दी गयी | अब पिता को याद करने का एक दिन बन गया था पर क्या पिता को याद करने का भी कोई एक दिन होना चाहिए ? मुझे तो समझ नहीं आता | यह पश्चिम की परम्परा हो सकती है पर हमारे यहाँ तो नहीं | पश्चिम में जहाँ विवाह एक संस्कार ना हो कर एक समझौता होता है, एग्रीमेंट होता है | ना जाने कब एक समझौता टूट कर दूसरा समझौता हो जाय, कुछ पता नहीं होता | ऐसे में बच्चों को अपने असली जन्मदाता के बारे में पता भी नहीं होता होगा | इसी लिए शायद पश्चिम में फादर्स डे की घोषणा करनी पड़ी होगी ताकि बच्चे अपने असली जन्मदाता को उस दिन याद करें पर हमारे यहाँ तो पिता एक पूरी संस्था का नाम है, पिता एक पूरी व्यवस्था, संस्कार है, हमारा आदर्श है | हमारे यहाँ कोई भी संस्कार पिता के बिना संपन्न नहीं होता | वही परिवार का मुखिया होता है और परिवार को वही अनुसाशन की डोर में बांधे रखता है | हम उन्हें एक दिन में कैसे बाँध सकते हैं जिन्होंने हमें जन्म दिया, एक वजूद दिया, चलना, बोलना और हर परिस्थिति से लड़ना सिखाया, उनके लिए सिर्फ एक दिन ! जिनके कारण हमारा अस्तित्व है उनके लिए इतना कम समय !
मुझे याद नहीं आता कि बचपन में मैंने कोई फादर्स डे जैसा शब्द सुना था | यह अभी कुछ सालों में ज्यादा प्रचलित हुआ है जब विदेशी कंपनियों ने इस डे वाद को बढ़ावा दिया है | इतने सारे डेज की वजह से ये कंपनियां करोड़ों रूपये अंदर करती हैं और हम खुश होते हैं एक डे मना कर या शायद विदेशों की तरह हमारे यहाँ भी रिश्तों की नींव दरकने लगी है | संयुक्त परिवार टूटने लगे हैं | एकल परिवारों का चलन बढ़ गया है | परिवार के नाम पर पति ,पत्नी और केवल बच्चे हैं
| पिता परिवार से बाहर हो चुके हैं और हाँ, माँ भी | पिता अकेले पड़ गए हैं, उनके बुढ़ापे की लाठी कहीं खो गयी है, है तो बस जीवनसाथी का साथ, वह भी भाग्यशाली पिता को |
हमारे ऊपर पश्चिमी संस्कृति हावी होती जा रही है | पिता के लिए घर में कोई स्थान नहीं ,वे बोझ लगने लगे हैं | इसी सोच के चलते हमारे देश में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ती जा रही है | यहां तक की वेटिंग में लंबी लाइन लगी है उनको वृद्धाश्रमों में धकेलने की |
लोग सोशल मिडिया पर फादर्स डे के दिन स्टेटस तो डालेंगे पर पिता के पास बैठने के लिए दो घड़ी का समय उनके पास नहीं है | वह कहीं अकेले बैठे होंगे कोने में | बड़े दुःख की बात है और शर्म की भी कि जिसके बिना हम अधूरे हैं उसी को हम भूलते जा रहे हैं | अपने जीवन की सुख-सुविधा उसके संग नहीं बाँट पा रहे हैं | विदेशों में जहाँ माता-पिता को ओल्ड एज हाउस में शिफ्ट कर देने की परंपरा है, वहाँ तो फादर्स-डे का औचित्य समझ में आता है पर भारत में कहीं इसकी आड़ में लोग अपने दायित्वों से मुंह तो नहीं मोड़ना चाहते ? अपनी जिम्मेदारियों से छुटकारा तो नहीं पाना चाहते ? इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है |
आज जरुरत है आगे बढ़ कर उन्हें सँभालने की, उन्हें सहारा देने की, उनको जिम्मेदारियों से मुक्त करने की | कल उन्होंने हमें संभाला था, आज हमारी बारी है, उनके अकेलेपन को कुछ कम कर पाने की, उनके चेहरे पर खुशी लौटा पाने की, उन्हें वही स्नेह लौटने की जो उन्होंने हमें बचपन में दिया था | उन्हें रू० पैसों की जरूरत नहीं है | उन्हे जरूरत है हमारे थोड़े से समय की जो उनके लिए हो | जिस दिन हम सब ऐसा करने में सफल हों जायेंगे, अपनी व्यस्ततम दिनचर्या से रोज थोडा सा समय उनके साथ बिताएँगे, उनकी परवाह करेंगे, स्वयं उनका ख्याल रखेगें उस दिन से हर दिन होगा -- हेप्पी फादर्स डे


मीना पाठक 

Sunday, May 8, 2016

माँ है तो हम हैं

दीदी माँ ऋतंभरा जी मंच पर आसीन भागवत कथा सुना रही थीं | सभी भक्त तन्मयता से सुन रहे थे | मैं भी टी.वी. के सामने बैठी सुन कर आनन्दित हो रही थी | यशोदा माँ के वात्सल्य का वर्णन हो रहा था | मुख्य कथा को छोड़ दीदी माँ ने भक्तों को एक दूसरी कथा सुनानी आरम्भ कर दी |
एक बार नारद मुनि पृथ्वी पर घूम रहे थे | उन्होंने माताओं को अपने शिशुओं पर ममता उड़ेलते देखा और सोचने लगे कि ये पृथ्वीवासी कितने भाग्यशाली हैं जो इन्हें माँ का सुख मिला है जो स्वर्ग में भी दुर्लभ है | इसी सोच में डूबे वह विष्णु जी के सामने उपस्थित होते हैं |  विष्णुदेव उनकी मन:स्थिति को भापते हुए पूछते हैं | नारद जी उन्हें सब कुछ बताते हैं तब भगवान विष्णु जी कहते हैं कि मातृ सुख तो केवल पृथ्वी वासियों को ही प्राप्त है और अगर किसी भी देवता को माता का वात्सल्य प्राप्त करना हो तो उसे पृथ्वी पर मनुष्य रूप में जन्म लेना होगा तभी यह संभव है | शायद इसी लिए भगवान ने धरती पर कई बार अवतार लिया है |
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस माँ के वात्सल्य के लिए देवताओं को भी मानव रूप में धरती पर अवतरित होना पड़ा उस माँ के लिए हम कोई एक दिन (डे) कैसे निर्धारित कर सकते हैं |
पूतना के विष लगे स्तनों का पान करने के कारण भगवान कृष्ण ने पूतना को माँ कहा और उसे स-सम्मान स्वर्ग में स्थान दिया |
माता कैकयी के कारण राम ने सहर्ष चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार कर लिया पर माता कैकयी को उन्होंने अपनी माता से बढ़ कर सम्मान दिया |
हम उसी राम और कृष्ण की संतान हैं जिन्होंने कहा है कि
माँ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है, माँ प्रकृति है, माँ देवी है, माँ अखिल सृष्टि की संचालक है, पालक है | माँ के बिना हमारा कोई आस्तित्व नहीं | हमारे ऋषि-मुनियों ने मातृदेवो भव कहा है | हमें बचपन से संस्कार भी यही मिला है कि सुबह आँख खुलते ही सबसे पहले धरती को स्पर्श कर माथे से लगाना चाहिए फिर निज जननी के चरण स्पर्श कर दिन की शुरुआत करनी चाहिए |
भारतीय संस्कृति में माँ के लिए वर्ष में एक दिन नहीं होता बल्कि यहाँ तो माँ के आशीर्वाद के बिना कोई दिन, कोई त्यौहार संभव ही नहीं है फिर माँ के लिए हम किसी एक दिन को त्यौहार की तरह कैसे मना सकते हैं ? माँ तो हमारी रगो में प्राण वायु बन कर प्रवाहित होती है | माँ है तो हम हैं, हमारा अस्तित्व है |
हमारी भारतीय संस्कृति की परम्परा तो यही है; पर जब से हमारी भारतीय संस्कृति में पाश्चात्य संस्कृति ने सेंध लगाई है तब से ना जाने कितने
दिन (डे) त्यौहार बन कर हमारी जिंदगी का हिस्सा बनते जा रहे हैं | विदेशी संस्कृति को अपनाते लोग अपनी खुद की सभ्यता और संस्कृति को भूलते जा रहे हैं |
वर्ष में किसी एक दिन माँ को याद कर लेना, उनके प्रति आभार प्रकट कर उनको तोहफा दे कर अपने कर्तव्यों से इति-श्री कर लेना विदेशों की परम्परा होगी हमारी नहीं; पर आज तो विदेशी रंग में ही हम रचते-बसते जा रहे हैं | विदेशों की व्यस्ततम जिंदगी में शायद इन रिश्तों के लिए समय नहीं मिलता होगा तभी उन लोगो ने इन
दिनों (डे) का चलन आरम्भ किया होगा | आज वही स्थिति हमारे देश में होती जा रही है | पहले हमारा परिवार माता-पिता के बिना पूरा नहीं होता था आज की स्थिति बिलकुल भिन्न है | आज परिवार में माता-पिता के लिए स्थान ही नहीं है | परिवार हम दो हमारे दो तक सीमित हो गया है | हम अपने रीति-रिवाज को छोड़ विदेशी रीति-रिवाज अपनाते जा रहे हैं और जाने-अनजाने यही रीति-रिवाज अपनी अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करते जा रहे हैं |
जो माँ हमारी रगो में प्राण वायु बन कर प्रवाहित होती है उसी माँ के लिए हमारे घरों में स्थान नहीं है | क्यों कि उसके लिए शहर में तमाम वृद्धाश्रम खुल गए हैं | आज हमें माँ की लोरियाँ, माँ की दी हुई सीख, माँ के दिए हुए संस्कार आउट ऑफ फैशन लगते हैं |
हम कहाँ आ गए हैं ? यह सोचना होगा | आधुनिकता कोई बुरी बात नहीं पर अपनी सभ्यता,संस्कृति और परम्परा को त्याग कर जो आधुनिकता मिले वह हमें मंजूर नहीं होना चाहिए | बच्चे अनुकरण करते हैं, इस लिए हम जो अपने बच्चो से अपेक्षा करते हैं पहले वह हमें स्वयं करना होगा | नहीं तो कल हमारा भी स्थान वहीं वृद्धाश्रम में होगा |
माँ हमारी सृष्टा है, माँ हमारी पालन कर्ता है, माँ से ही हमारा आस्तित्व है, माँ है तो हम है | हम भग्यशाली हैं कि हमारे सिर पर माँ का हाथ है | 
माँ के चरणों में हर पल, हर दिन हमारा नमन ! वन्दन !

मीना पाठक


 

Monday, March 28, 2016

जब ना रहूँगी मैं !


ढूंडोगे मुझे
इन कलियों में
पुष्पों की पंखुड़ियों में
जो खिलते ही मुझसे बतियाते हैं
छत पर दाना चुनते
पंक्षियों के कलरव में
जो देखते ही मुझे, आ जाते हैं
भोर के तारे में
जो रोज मेरी बाट जोहता है
और मिल-बतिया कर विदा होता है
प्रभात की पहली किरण में
जिसके स्वागत  में
बाँहें पसारे खड़ी रहती हूँ नित्य
घर के कोनों में

धूल पटी खिड़कियों में
धुँधलाये आईने में
जो मेरी उँगलियों का स्पर्श पाते ही
मुस्कुरा उठते हैं
अंत में ढूंडोगे मुझे !
बेतरतीब आलमारी की किताबों में
मेरी सिसकती, कराहती कहानियों
और गोन्सारी की धधकती आग से
पतुकी में भद्-भदाती गर्म रेत सी
कविताओं में,
जब ना रहूँगीं मैं.... || 

मीना पाठक 

Thursday, December 31, 2015

बहुत याद आओगे तुम

सुनो !
तुम जा रहे हो ना
रोक तो नहीं सकती तुम्हें
मेरे वश में नहीं ये
पर तुम बहुत याद आओगे
क्यों कि
बहुत रुलाया है तुमने
पीड़ा से आहत कर
आँसुओं के सागर में डुबाया है तुमने
याद आओगे जब भी
रिसेगें सारे जख्म
धधकेगी क्रोध की ज्वाला
नफरतों का गुबार लिए अंतर में
बहुत याद आओगे तुम
क्यों कि
घिर गई थी जब
निराशाओं के भँवर में
राह ना सूझ रही थी
कोई इस जग में
अपनों में  बेगानों सी
खो गई थी तम में
तब तुमने संबल दिया
जीने का हौसला
आँखों में आँखें डाल
सामना करने की हिम्मत
अपने हक, सम्मान के लिए
आवाज उठाने की,

विरोध करने की ताकत
अपनेआप को साबित करने
और दुनिया को ये दिखाने की
कि मैं, मैं हूँ
तुम बहुत याद आओगे
क्यों कि
तुमने ही तो मुझको
मुझसे मिलाया है,
दुनिया कितनी खूबसूरत है
ये बताया है
प्रेम करना सिखाया है, खुद से
सच...बहुत याद आओगे तुम  ||
 







नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ
सादर
मीना पाठक

शापित

                           माँ का घर , यानी कि मायका! मायके जाने की खुशी ही अलग होती है। अपने परिवार के साथ-साथ बचपन के दोस्तों के साथ मिलन...