Tuesday, September 19, 2017
Monday, February 13, 2017
कुछ ऐसा हो इस बार आप का ‘वैलेंटाइन डे'
फरवरी माह आते ही सभी प्रेमी जनों के दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं | सभी अपनी-अपनी
तरह से ‘वैलेंटाइन डे’ मनाने और अपने साथी को सरप्राईज देने
की तैयारी में जुट जाते हैं | वैसे हमारे हिन्दुस्तनी परम्परा में ऐसा कोई दिन
निर्धारित नही किया गया है | हमारे यहाँ तो इन दिनों वसंतोत्सव मानने की परम्परा
रही है पर इस इंटरनेट के युग में बहुत से विदेशी त्योहारों ने हमारे यहाँ भी दस्तक
दे दी है और इन्हें हमारे यहाँ भी जोर शोर से मनाया जाने लगा है खासकर आज की युवा
पीढ़ी इन्हें बहुत ही उत्साह से मना रही है हलाकि बहुत से संगठन इसका विरोध भी करते
हैं परन्तु इस भागती-दौड़ती, तमाम परेशानियों और तनाव भरी ज़िंदगी से अगर एक दिन
प्रेम के लिए निकाल लिया जाय तो बुरा भी क्या है ! वैसे तो प्रेम को किसी एक दिन
में समेटा नहीं जा सकता फिर भी इसी बहाने अपने साथी को कुछ समय देने के साथ-साथ वो
उनके लिए कितने महत्वपूर्ण हैं..इसका एहसास करा सकें तो हर्ज़ ही क्या है ! पर हर
दिन को मनाने का अपना अपना तरीका होता है | आजकल हर तीज-त्यौहार का व्यवसायीकरण हो
गया है | कम्पनियों के झाँसे में हमारा युवा वर्ग बुरी तरह फँसा हुआ है और दिल खोल
कर पैसे खर्च रहा है | इस दिन ना जाने कितने कार्ड..बुके..गुलाब.. चॉकलेट्स और भी ना
जाने कितनी तरह के गिफ्ट बिक जाते हैं और कम्पनियों के वारे न्यारे हो जाते हैं |
कम्पनियाँ बड़ी ही चालाकी से आपसे आपकी ही जेब का पैसा निकालवा लेती हैं | इस लिए इन
त्योहारों को मनाने में थोड़ी सतर्कता बरतनी चाहिए | प्रेम का दिन है इस लिए इसे
प्रेम से मनाएँ जरूरी नहीं कि आप के मित्र का साथी अगर अपने साथी को कोई कीमती
उपहार दे रहा है या कहीं बाहर लंच या डिनर के लिए ले जा रहा है तो आप भी अपने साथी
से यही उम्मीद करें | इस दिन घर में कुछ अच्छा सा अपने हाथों से बना कर लंच,डिनर
घर पर भी कर सकते हैं | इससे एक तो पैसे की बचत होगी दूसरे आप ज्यादा समय अपने
परिवार के साथ बिता पायेंगें | मँहगा बुके देने की अपेक्षा आप अपने बगीचे में खिले
हुए ताजे गुलाब भी भेंट कर सकते हैं या आप के साथी ने जो भी उपहार अपने पॉकेट के
अनुसार आप के लिए सलेक्ट किया है आप उसे ही खुशी से स्वीकार कर इस दिन को बेहतर
बना सकते हैं | कोई भी त्यौहार मँहगे गिफ्ट या मँहगे रेस्टोरेंट में लंच, डिनर
लेने से सफल नहीं होता बल्कि आपसी समझ-बूझ और एक दूसरे पर अटूट विश्वास से सफल
होता है | एक दूसरे की जरूरतों..पसंद ना पसंद..भावनाओं का ख़याल रखना व रिश्तों में
स्पेस बना कर चलना ही रिश्तों को दूर तक ले जाता है नहीं तो आज के इंटरनेट के युग
में एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखने का चलन बढ़ता जा रहा है और विश्वसनीयता
खत्म होती जा रही है | ऐसे में ये दिन बहुत ही महत्वपूर्ण है अपने साथी को ये
बताने के लिए कि आप मेरे लिए कितने खास हो | इस लिए इस मंदी के दौर में आप इसे
अपनी तरह से भी मना सकते हैं | प्रेम में आडम्बर और दिखावे के लिए स्थान ही कहाँ होता
है |
कोई भी उत्सव हमारे अकेले का नहीं होता..उसमे बच्चे व परिवार भी सम्मिलित होते हैं..और हम हिन्दुस्तानी हर उत्सव अपने परिवार संग मनाते हैं..तो चलिए मनाते हैं चौदह फरवरी को वैलेंटाइन डे..अपने परिवार..अपने बच्चों और प्रियजनों के साथ |
मीना पाठक
कोई भी उत्सव हमारे अकेले का नहीं होता..उसमे बच्चे व परिवार भी सम्मिलित होते हैं..और हम हिन्दुस्तानी हर उत्सव अपने परिवार संग मनाते हैं..तो चलिए मनाते हैं चौदह फरवरी को वैलेंटाइन डे..अपने परिवार..अपने बच्चों और प्रियजनों के साथ |
मीना पाठक
Tuesday, August 16, 2016
कुछ बातें मेरे मन की
कुछ दिनों
पहले मैंने एक आलेख लिखा था और दिल्ली के दामिनी केस की चर्चा करते हुए कई सवाल
रखे थे | वो आलेख जब मैंने एक पत्रिका
के संपादक महोदय को भेजा तो उन्होंने ये कह कर आलेख वापस कर दिया कि ‘आपके आलेख में बहुत पुराने विषय की चर्चा की गयी है |’ मैं हर वक्त सोचती रहती हूँ कि
क्या उस संपादक महोदय ने सच बोला था ? क्या बलात्कार एक ‘विषय’ भर है ? जो घटना एक स्त्री की मर्यादा तार-तार
कर देती है और उसे जीवन भर के लिए अभिशप्त बना देती है, वह एक विषय मात्र है ?? कोई भी इतने हल्के में इस बात को कैसे
ले सकता है ?
हर रोज के अखबार गैंग रेप की घटनाओं से रंगे रहते हैं | आखिर ये कौन लोग हैं जिनके हौसले इतने बुलन्द हैं कि एक के बाद एक घटनाओं को अंजाम देते जा रहे हैं ? इन्हें ना तो प्रशासन का कोई डर है ना दण्ड का खौफ़ ! समझ में नहीं आता कि हम, मुगलकाल में रह रहे हैं या अंग्रेजी शासन में, जब हम गुलाम थे और हमारे साथ बदसलूकी होती थी | वो तो पराये थे, दूसरे देश के थे पर आज तो हम आजाद हैं और आजादी की ७०वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं फिर देश की आधी आबादी का ये हश्र क्यूँ है ?
आखिर सब किस दिशा में जा रहे हैं | एक तरफ विकास की बात होती है तो दूसरी तरफ ‘बेटी बचाओ बेटी पढाओ’ का नारा दिया जाता है | वहीं कहीं भी बेटियां सुरक्षित नहीं हैं ? इस तरह की जब भी कोई घटना घटती है तो हर राजनीतिक पार्टी अपना पल्ला झाड़ कर दूसरी पार्टियों पर आरोप-प्रत्यारोप करते दिखाई देती हैं |
आये दिन सामूहिक बलात्कार की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं फिर उन घटनओं पर कुछ दिन तो राजनीति गर्म रहती है, तमाम न्यूज चैनल्स पर डिबेट होते हैं फिर सब कुछ शांत हो जाता है | वहीं अगर पीडिता के नाम के आगे कोई विशेष जाती या सम्प्रदाय जोड़ दिया जाए तो वह पीड़ा पूरे देश और सभी राजनीतिक पार्टियों की हो जाती है |
यह कौन सा कानून है ? समझ में नहीं आता | बंद कीजिये आप लोग, इतनी घिनौनी राजनीति करना |
जो पार्टी चुनाव के समय जनता को पूरी सुरक्षा का वायदा करती है, चुन लिए जाने पर वही पार्टी अराजक तत्वों को पूरी छूट देती नजर आती है और आम आदमी डरा हुआ होता है | दिल्ली, बुलंद शहर, बरेली हो या मुरुथल इन घटनाओं के बाद आज परिस्थितियाँ यह हैं कि कोई पुरुष भी अपनी पत्नी या बेटी को लेकर घर से निकलने पर दस बार सोचेगा | अपने ही शहर में अकेले तो क्या अपने परिवार के पुरुष सदस्यों के साथ भी बाहर निकलने में हम स्त्रियों की रूह काँप रही है | तो क्या अब हमें घर पर बैठ जाना चाहिए ? बाहर नहीं निकलना चाहिए ? या घर में भी हम सुरक्षित हैं ? कई सवाल हैं,जिनके जवाब हमें चाहिए |
छुटभैयों को छोड़ दीजिए तो बड़े-बड़े राष्ट्रीय नेता जब ये कहें कि ‘लड़के हैं, हो जाती है उनसे गलती’ तो उन्ही के शासनकाल में स्त्रियाँ कैसे सुरक्षित हो सकती हैं ? सोचने की बात है |
हर रोज के अखबार गैंग रेप की घटनाओं से रंगे रहते हैं | आखिर ये कौन लोग हैं जिनके हौसले इतने बुलन्द हैं कि एक के बाद एक घटनाओं को अंजाम देते जा रहे हैं ? इन्हें ना तो प्रशासन का कोई डर है ना दण्ड का खौफ़ ! समझ में नहीं आता कि हम, मुगलकाल में रह रहे हैं या अंग्रेजी शासन में, जब हम गुलाम थे और हमारे साथ बदसलूकी होती थी | वो तो पराये थे, दूसरे देश के थे पर आज तो हम आजाद हैं और आजादी की ७०वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं फिर देश की आधी आबादी का ये हश्र क्यूँ है ?
आखिर सब किस दिशा में जा रहे हैं | एक तरफ विकास की बात होती है तो दूसरी तरफ ‘बेटी बचाओ बेटी पढाओ’ का नारा दिया जाता है | वहीं कहीं भी बेटियां सुरक्षित नहीं हैं ? इस तरह की जब भी कोई घटना घटती है तो हर राजनीतिक पार्टी अपना पल्ला झाड़ कर दूसरी पार्टियों पर आरोप-प्रत्यारोप करते दिखाई देती हैं |
आये दिन सामूहिक बलात्कार की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं फिर उन घटनओं पर कुछ दिन तो राजनीति गर्म रहती है, तमाम न्यूज चैनल्स पर डिबेट होते हैं फिर सब कुछ शांत हो जाता है | वहीं अगर पीडिता के नाम के आगे कोई विशेष जाती या सम्प्रदाय जोड़ दिया जाए तो वह पीड़ा पूरे देश और सभी राजनीतिक पार्टियों की हो जाती है |
यह कौन सा कानून है ? समझ में नहीं आता | बंद कीजिये आप लोग, इतनी घिनौनी राजनीति करना |
जो पार्टी चुनाव के समय जनता को पूरी सुरक्षा का वायदा करती है, चुन लिए जाने पर वही पार्टी अराजक तत्वों को पूरी छूट देती नजर आती है और आम आदमी डरा हुआ होता है | दिल्ली, बुलंद शहर, बरेली हो या मुरुथल इन घटनाओं के बाद आज परिस्थितियाँ यह हैं कि कोई पुरुष भी अपनी पत्नी या बेटी को लेकर घर से निकलने पर दस बार सोचेगा | अपने ही शहर में अकेले तो क्या अपने परिवार के पुरुष सदस्यों के साथ भी बाहर निकलने में हम स्त्रियों की रूह काँप रही है | तो क्या अब हमें घर पर बैठ जाना चाहिए ? बाहर नहीं निकलना चाहिए ? या घर में भी हम सुरक्षित हैं ? कई सवाल हैं,जिनके जवाब हमें चाहिए |
छुटभैयों को छोड़ दीजिए तो बड़े-बड़े राष्ट्रीय नेता जब ये कहें कि ‘लड़के हैं, हो जाती है उनसे गलती’ तो उन्ही के शासनकाल में स्त्रियाँ कैसे सुरक्षित हो सकती हैं ? सोचने की बात है |
मैं कोई
पत्रकार नहीं हूँ ना ही कोई बहुत बड़ी आंकड़ों की जानकार हूँ; पर इस देश की आधी आबादी में से एक हूँ
| हम आधी आबादी के लिए कोई भी
सरकार क्या कर रही है ? ये घटनाएँ राज्य ही नहीं पूरे देश में देखने को मिल रही हैं | हम आधी आबादी जो इस देश का भविष्य
निर्धारित करने में अहम भूमिका निभातीं हैं, उनके भविष्य को लेकर देश-प्रदेश की सरकारें कितनी गंभीर हैं ? ये बताने की आवश्यकता नहीं है, सभी बुद्धिजीवी जानते हैं |
अंत में
इतना ही कहूँगी की मुख्यमंत्री महोदय ! जिस दिन आप सभी की बहू-बेटियों को अपने घर
की बहू-बेटी मान लेंगे, उस दिन कम से कम ये प्रदेश बलात्कार मुक्त हो जायेगा, यह मुझे विश्वास है | जिस तरह आप अपने घर की स्त्रियों को
सुरक्षा प्रदान करते हैं, उसी तरह प्रदेश की सभी स्त्रियों की सुरक्षा का संकल्प लें और इस
जिम्मेदारी को इमानदारी से निभाएं |
प्रधान मंत्री जी से भी मेरी ये गुजारिश है कि वह देश में स्त्रियों के साथ हो रहे इस अमानुषिक अनाचार के खिलाफ कुछ कड़े कदम तुरंत उठायें | हम जानते हैं कि आप बहुत कुछ कर सकते हैं; पर आप हमारी सुरक्षा के लिए गंभीर नहीं हैं, ऐसा हमें लग रहा है नहीं तो देश की महिलाओं के साथ इस तरह की अपमानजनक घटनाएँ नहीं घटती | अगर देश की महिलाएँ सुरक्षित नहीं हैं तो आप का यह नारा बेमानी हो जाता है कि ‘बेटी बचाओ,बेटी पढाओ’, या ‘पढेंगीं बेटियाँ तभी तो बढ़ेगीं बेटियाँ’ | उस देश का विकाश कभी नहीं हो सकता जहाँ स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं | सर ! हमें आपसे बहुत उम्मीदें थीं पर अपनी सुरक्षा को ले कर हम बहुत निराश हुए हैं आप से |
पहले आप सभी 'ला एण्ड आर्डर' के रखवाले, पालन करवाने वाले, सभी मिल कर हम आधी आबादी की सुरक्षा का वचन दें नहीं तो आप हमारे बिना निर्विरोध चुन लिए जायं, ये हो नहीं सकता | आप हमें सिर्फ भयमुक्त वातावरण दीजिए, अपनी मंजिल हम स्वयं तय कर लेंगीं नहीं तो जिस दिन देश की आधी आबादी अपने पर आ जायेगी उस दिन आप की कुर्सी खिसक जायेगी और आप फिर दोबारा कुर्सी पर बैठने को तरस जायेंगे, सुन् रहे हैं ना आप लोग !!
मीना पाठक
प्रधान मंत्री जी से भी मेरी ये गुजारिश है कि वह देश में स्त्रियों के साथ हो रहे इस अमानुषिक अनाचार के खिलाफ कुछ कड़े कदम तुरंत उठायें | हम जानते हैं कि आप बहुत कुछ कर सकते हैं; पर आप हमारी सुरक्षा के लिए गंभीर नहीं हैं, ऐसा हमें लग रहा है नहीं तो देश की महिलाओं के साथ इस तरह की अपमानजनक घटनाएँ नहीं घटती | अगर देश की महिलाएँ सुरक्षित नहीं हैं तो आप का यह नारा बेमानी हो जाता है कि ‘बेटी बचाओ,बेटी पढाओ’, या ‘पढेंगीं बेटियाँ तभी तो बढ़ेगीं बेटियाँ’ | उस देश का विकाश कभी नहीं हो सकता जहाँ स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं | सर ! हमें आपसे बहुत उम्मीदें थीं पर अपनी सुरक्षा को ले कर हम बहुत निराश हुए हैं आप से |
पहले आप सभी 'ला एण्ड आर्डर' के रखवाले, पालन करवाने वाले, सभी मिल कर हम आधी आबादी की सुरक्षा का वचन दें नहीं तो आप हमारे बिना निर्विरोध चुन लिए जायं, ये हो नहीं सकता | आप हमें सिर्फ भयमुक्त वातावरण दीजिए, अपनी मंजिल हम स्वयं तय कर लेंगीं नहीं तो जिस दिन देश की आधी आबादी अपने पर आ जायेगी उस दिन आप की कुर्सी खिसक जायेगी और आप फिर दोबारा कुर्सी पर बैठने को तरस जायेंगे, सुन् रहे हैं ना आप लोग !!
मीना पाठक
Monday, June 13, 2016
हेप्पी फादर्स डे
पूरे विश्व में
जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाया जाता है | भारत में भी धीरे-धीरे इसका चलन
बढ़ता जा रहा है | इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बढती भूमंडलीकरण की अवधारणा के
परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है और पिता के प्रति प्रेम के इज़हार के परिप्रेक्ष्य
में भी |
लगभग १०८ साल
पहले १९०८ में अमेरिका के वर्जीनिया में चर्च ने फादर्स डे की घोषणा की थी | १९
जून १९१० को वाशिंगटन में इसकी आधिकारिक घोषणा कर दी गयी | अब पिता को याद करने का
एक दिन बन गया था पर क्या पिता को याद करने का भी कोई एक दिन होना चाहिए ? मुझे तो
समझ नहीं आता | यह पश्चिम की परम्परा हो सकती है पर हमारे यहाँ तो नहीं | पश्चिम में
जहाँ विवाह एक संस्कार ना हो कर एक समझौता होता है, एग्रीमेंट होता है | ना जाने कब
एक समझौता टूट कर दूसरा समझौता हो जाय, कुछ पता नहीं होता | ऐसे में बच्चों को
अपने असली जन्मदाता के बारे में पता भी नहीं होता होगा | इसी लिए शायद पश्चिम में
फादर्स डे की घोषणा करनी पड़ी होगी ताकि बच्चे अपने असली जन्मदाता को उस दिन याद
करें पर हमारे यहाँ तो पिता एक पूरी संस्था का नाम है, पिता एक पूरी व्यवस्था,
संस्कार है, हमारा आदर्श है | हमारे यहाँ कोई भी संस्कार पिता के बिना संपन्न नहीं
होता | वही परिवार का मुखिया होता है और परिवार को वही अनुसाशन की डोर में बांधे
रखता है | हम उन्हें एक दिन में कैसे बाँध सकते हैं जिन्होंने हमें जन्म दिया, एक
वजूद दिया, चलना, बोलना और हर परिस्थिति से लड़ना सिखाया, उनके लिए सिर्फ एक दिन !
जिनके कारण हमारा अस्तित्व है उनके लिए इतना कम समय !
मुझे याद नहीं आता कि बचपन में मैंने कोई फादर्स डे जैसा शब्द सुना था | यह अभी कुछ सालों में ज्यादा प्रचलित हुआ है जब विदेशी कंपनियों ने इस डे वाद को बढ़ावा दिया है | इतने सारे डेज की वजह से ये कंपनियां करोड़ों रूपये अंदर करती हैं और हम खुश होते हैं एक डे मना कर या शायद विदेशों की तरह हमारे यहाँ भी रिश्तों की नींव दरकने लगी है | संयुक्त परिवार टूटने लगे हैं | एकल परिवारों का चलन बढ़ गया है | परिवार के नाम पर पति ,पत्नी और केवल बच्चे हैं | पिता परिवार से बाहर हो चुके हैं और हाँ, माँ भी | पिता अकेले पड़ गए हैं, उनके बुढ़ापे की लाठी कहीं खो गयी है, है तो बस जीवनसाथी का साथ, वह भी भाग्यशाली पिता को |
मुझे याद नहीं आता कि बचपन में मैंने कोई फादर्स डे जैसा शब्द सुना था | यह अभी कुछ सालों में ज्यादा प्रचलित हुआ है जब विदेशी कंपनियों ने इस डे वाद को बढ़ावा दिया है | इतने सारे डेज की वजह से ये कंपनियां करोड़ों रूपये अंदर करती हैं और हम खुश होते हैं एक डे मना कर या शायद विदेशों की तरह हमारे यहाँ भी रिश्तों की नींव दरकने लगी है | संयुक्त परिवार टूटने लगे हैं | एकल परिवारों का चलन बढ़ गया है | परिवार के नाम पर पति ,पत्नी और केवल बच्चे हैं | पिता परिवार से बाहर हो चुके हैं और हाँ, माँ भी | पिता अकेले पड़ गए हैं, उनके बुढ़ापे की लाठी कहीं खो गयी है, है तो बस जीवनसाथी का साथ, वह भी भाग्यशाली पिता को |
हमारे ऊपर
पश्चिमी संस्कृति हावी होती जा रही है | पिता के लिए घर में कोई स्थान नहीं ,वे
बोझ लगने लगे हैं | इसी सोच के चलते हमारे देश में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ती जा
रही है | यहां तक की वेटिंग में लंबी लाइन लगी है उनको वृद्धाश्रमों में धकेलने की
|
लोग सोशल
मिडिया पर फादर्स डे के दिन स्टेटस तो डालेंगे पर पिता के पास बैठने के लिए दो घड़ी
का समय उनके पास नहीं है | वह कहीं अकेले बैठे होंगे कोने में | बड़े दुःख की बात
है और शर्म की भी कि जिसके बिना हम अधूरे हैं उसी को हम भूलते जा रहे हैं | अपने
जीवन की सुख-सुविधा उसके संग नहीं बाँट पा रहे हैं | विदेशों में
जहाँ माता-पिता को ओल्ड एज हाउस में शिफ्ट कर देने की परंपरा है, वहाँ
तो फादर्स-डे का औचित्य समझ में आता है पर भारत में कहीं इसकी आड़ में लोग अपने
दायित्वों से मुंह तो नहीं मोड़ना चाहते ? अपनी जिम्मेदारियों से छुटकारा तो नहीं
पाना चाहते ? इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है |
आज जरुरत है
आगे बढ़ कर उन्हें सँभालने की, उन्हें सहारा देने की, उनको जिम्मेदारियों से मुक्त
करने की | कल उन्होंने हमें संभाला था, आज हमारी बारी है, उनके अकेलेपन को कुछ कम
कर पाने की, उनके चेहरे पर खुशी लौटा पाने की, उन्हें वही स्नेह लौटने की जो
उन्होंने हमें बचपन में दिया था | उन्हें रू० पैसों की जरूरत नहीं है | उन्हे
जरूरत है हमारे थोड़े से समय की जो उनके लिए हो | जिस दिन हम सब ऐसा करने में सफल
हों जायेंगे, अपनी व्यस्ततम दिनचर्या से रोज थोडा सा समय उनके साथ बिताएँगे, उनकी
परवाह करेंगे, स्वयं उनका ख्याल रखेगें उस दिन से हर दिन होगा -- हेप्पी फादर्स डे
मीना पाठक
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