बड़ी खुशनुमा दोपहरी
है, खुशबू लिए हुए हवा के झोंके बसंती और फुलवा को सहला रही हैं, ऊपर आसमान में भूरे बादल उड़ रहे हैं,
उनकी छाया जमीन पर दौड़ रही है, दुआर से थोड़ी दूर मैदान में घास के ऊपर बादलों की
उड़ती हुई छाया रोमांच पैदा कर रही है | दूर कहीं बौछारें गिरी हैं जिसके कारण हवा
से मिट्टी की सौंधी खुशबू आ रही है |
घर के सामने खुली जगह पर बसंती मिट्टी के घड़े के टूटे हुए एक टुकड़े से कुछ लकीरें
खींच रही है और उसकी सखी फुलवा बड़े -बड़े फूलों वाली फ्राक पहने ओसारे की सीढियों
पर बैठी लंगड़ी खेलने के इंतजार में उससे कुछ बाते करती जा रही है | बसंती की सफ़ेद
फ्राक पर छोटे-छोटे फूल और तितलियाँ बनी हुई हैं और उसके बालों को दो हिस्से में
बाँट कर दोनो कानों के ऊपर लाल रंग के रिबन से बांध कर सुन्दर से दो फूल बनाये गये
हैं | बसंती ने एक आयताकार
आकृति बना कर उसके अन्दर कई लकीरें खींच दी है अब दोनों में ये तय नही हो पा रहा
है कि पहले कौन खेलेगा |
दोनों पहले हम,पहले हम कर ही रहीं थीं कि इतने में पीछे से एक मोटी सी आवाज आई -- “ई का ?”
दोनो ने आवाज की तरफ घूम कर देखा, घुरिया अपनी लहराती चाल से उन्ही की तरफ चली आ
रही थी |
“देखु ना घुरिया हम
एतना मेहनत से बनवली हँ,
त पहिले हमही खेलब |”
बसंती मचल कर बोली |
“हर बेर तूहीं पहिले
खेलबू ?” खिसियाते हुए फुलवा
बोली |
“काहें ? जब ओल्हापाती
खेले के बेरिया हमहीं के हर बेर चोर बना देलू, तब हम त नाही रिसियानी |” दोनों हाथ कमर पर रख आँखे मटका कर बोली
बसंती |
“हँ..त तूहीं हर बेर
चोर छंटा जालू त हम का करीं |”
बसंती भी अकड़ कर बोली |
घुरिया जो अभी तक इन दोनों की लड़ाई देख रही थी बसंती के हाथ से चप्पू (घड़े का गोल
सा टुकड़ा) ले लेती है |
“ले आव द, हम पहिले
खेलब” कह कर उस चप्पू को
पहले खाने में ऐसे फैकती है कि वो खाने में ही गिरे ना तो दूसरे खाने में जाये ना
ही पहले और दूसरे खाने की बीच की लकीर को स्पर्श करे चप्पू सही स्थान पर गिरता है
और घुरिया अपना एक पैर उठा कर एक पैर से उस खाने में कूदते हुए जाती है और उस
चप्पू को उसी पैर से मार कर बाहर ले आती है; अब तीनों मिल कर लंगड़ी के खेल का आनंद
लेने लगतीं हैं |
*
यू.पी. और बिहार को जोड़ता हुआ स्टेशन सिवान उससे कुछ दूर पर स्थित है पिपरौंसी
गाँव जिसमे ज्यादातर भुमिहार ब्राह्मणों का परिवार है कुल तीन घर ब्राह्मणों का है,
बाकी और कई जातियों के परिवार भी हैं; पर सबसे ज्यादा संपन्न और ठसकदार गाँव के
भूमिहार हैं, वो कुछ भी करें, उनके खिलाफ़ बोलने की हिम्मत गाँव में किसी की भी नही
है | गाँव में ब्राह्मणों का बहुत सम्मान होता है, सभी उनका आदर करते हैं, उन्ही
में से एक परिवार किसन बाबा का है | किसन बाबा बाल-ब्रम्हचारी हैं उनका मन पूजा
पाठ में ज्यादा लगता है, गाँव के कई लोगों ने उनसे गुरुदीक्षा ले रखी है; इसी लिए
सभी उनको बाबा कह कर बुलाते हैं | अपने घर से भी उनको बहुत मान मिलता है और वो भी
अपने घर वालों का बहुत ख्याल रखते हैं | बसंती किसन बाबा की १० साल की भतीजी है |
उनके मझले भाई साहब कलकत्ते में नौकरी करते है; तो उनका परिवार ज्यादातर अपने गाँव
पिपरौंसी में ही रहता है, बसंती उनकी एक ही बेटी है |
फुलवा गाँव के एक संपन्न किसान नारायण राय की बेटी है और घुरिया दूसरे टोला की है,
तीनो लगभग एक ही उम्र की हैं और उनमे खूब पटती भी है और लड़ाई भी खूब होती है |
ओल्हापाती खेलना हो, लंगड़ी, पचीसी या गोटी, बिना लड़ाई के क्या मजाल की खेल पूरा हो
जाय | कभी-कभी तो झोंटा-झुटउवल की नौबत आ जाती है,बाल बिखर जाते हैं रिबन का फूल
बिगड़ जाता है, लड़ाई के बाद कट्टी हो जाती, ऐसा लगता कि अब ये तीनों एक दूसरे से
कभी बात नही करेंगीं; पर अगले ही दिन फिर से खेलने की तैयारी हो जाती | बसंती की
माँ हर बार उसे उन दोनों के साथ खेलने से रोकती पर वो माने तब ना ..
घुरिया दो भाइयों के बीच एक बहन है पर उसकी बदकिस्मती ये कि उम्र के हिसाब से उसकी
बुद्धि बहुत कम थी | सांवला रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, कमर तक लंबे बाल और लहराती हुई
चाल कुल मिला कर सुंदर थी,
बस दिमाग ही भगवान ने थोड़ा और दे दिया
होता तो क्या बात थी ! उसकी माँ उसका बहुत ख्याल रखती, उसके लंबे बाल हमेशा संवरे
रहते, कपड़े साफ़-सुथरे और पाँवो में हमेशा चप्पल रहती, बस एक कमी थी उसमे, उसकी
आवाज बहुत भारी थी; पर इससे उन तीनो की दोस्ती में कोई फर्क नही पड़ता था |
बसंती अब बड़ी हो रही थी और उसकी माँ चाहती थी कि आगे की पढ़ाई उसकी कलकत्ते में हो
इस लिए अपने पति को बार-बार चिट्ठी लिख रही थी आखिर कुछ दिनों बाद चिट्ठी आई कि “मै आ रहा हूँ तुम्हें लेने” और बसंती की माँ ने जैसे अपनी मन की
मुराद पा ली हो, वो जाने की तैयारी में लग गई |
*
गाँव से थोड़ी दूर बगीचे में एक तरफ़ गन्ने की पेराई हो रही थी वहीं थोड़ी दूर ईंट का
गोलाकार बड़ा सा चूल्हा बना था, उसी पर एक बड़ा सा छिछला कड़ाहा चढ़ा था, जिसमे गन्ने
के रस को एक सूती धोती से छान कर डाला जा रहा था, कड़ाहे के नीचे तेज आग जल रही थी
और एक आदमी उसे चला रहा था, कुछ देर बाद ही गर्म गर्म गुड़ तैयार होने वाला था |
वहीं थोड़ी दूर पर पकड़ी के पेड़ के नीचे तीनों सखियां उदास बैठीं थीं, आज से दसवें
दिन बसंती को चले जाना था, इसी बात से वो तीनों बहुत उदास थीं | उन्हें गाँव में
लगभग सभी जानते थे और बसंती तो सब की दुलारी थी तो उसे बहुत लाड मिलता था सबसे |
उधर से निकलते हुए रामबचन ने उन तीनों को देख लिया |
“अरे !! ई तिकड़ी काहें मन गिरा के बैठी है भाई” रामबचन उन तीनों को उदास देख कर बोले |
वो कुछ बोलतीं इससे पहले फिर बोल पड़े रामबचन “चला…तोहा लोगिन के हम रस पिआयीं |”
“नाहीं चाचा, आज मन
नईखे |” बसंती दबे स्वर में
बोली
“काहें बबुनिया ? आज ई
चाँद जईसन मुखड़ा पर गरहन काहें लागल बा ?” रामबचन उनके पास बैठते हुए बोले | रामबचन का घर बसंती के घर
के पास ही था |
“बिहान बसंती शहर चली
जाई, एहीसे हमनीके नीक नइखे लागत |”
बोलते हुए फुलवा की आँखे भर गई |
“अच्छा !!! ई त बहुते खुशी के बात बा, चला हम सबके मुंह
मीठ कराई |”
रामबचन तीनो को ले गये जहाँ गन्ना पेरा जा रहा था पर रस किसी ने भी नही पिया तो
महुआ के पत्ते पर गरम-गरम गुड़ ला कर रामवचन ने तीनो को दिया |
वो खा ही रहीं थीं कि ओल्हापाती की पूरी टीम आ कर बसंती को घेर खड़ी हो गई | उन सब
को पता चल गया था कि वो गाँव छोड़ कर जाने वाली है, सभी के लटके हुए चेहरे देख कर
रामबचन बोले..
“बसंती के जाए में अबहिन कई दिन बा ना, त
आज से काहें इतना उदासी ? जा..जा के खेला लोगिन बसंती के साथ |”
सभी बच्चे शोर करते हुए जामुन के पेड़ की तरफ़ बढ़ जाते हैं और शुरू हो जाता है
ओल्हापाती का खेल |
*
बसंती कलकत्ते माँ के साथ अपने पापा के पास चली गई, फुलवा गोरखपुर पढ़ने के लिए भेज
दी गई; पर घुरिया गाँव में ही रह गई, बाकी सब भी अपनी-अपनी पढ़ाई में लग गये |
दिन बीतने लगे सब का साथ छूट गया, बसंती अब शहर के वातावरण में घुल मिल गई थी
| उसका पहनावा, बातचीत का तरीका, उठने बैठने का ढंग सब
बदल गया था लेकिन वो फुलवा और घुरिया को भूल नही पायी थी, जब भी अकेली होती वही
बगीचा, गर्म
गुड़, महुआ, बादलों की परछाई को पकड़ने के लिए भागना उसे सब याद आता तब वो अपनी,
फुलवा और घुरिया की फोटो निकाल कर देख लेती |
*
उधर बसंती और फुलवा के चले जाने के बाद घुरिया अकेली हो गई | उसका घर से निकलना
बंद कर दिया गया वो घर के अन्दर गुड्डे गुड़ियों से खेलती, अब वो पहले जैसे लंगड़ी,
पचीसी और ओल्हापाती नही खेल पाती, बाहर न निकलने देने का एक कारण और भी था, अब वो
शरीर से बड़ी हो रही थी; पर उसका मन अब भी बच्चों जैसा था | फुलवा और बसंती की बात
और थी पर किसी दूसरे के साथ खेलने जाने की इजाजत नही थी उसे | उसकी माँ पल-पल उसका
ख्याल रखती |
*
समय का पहिया घूमता गया, कई बसंत खिले और चले गये, कई बार बादलों ने छुआ-छुऔवल
खेला, कई बार बगीचे के
पेडों ने अपने पुराने पत्ते गिरा कर नये पत्ते पहन लिए और कई बार बरखा की बूंदों
ने धरा को सिंचित किया;
पर इस बार जो बसंत खिला तो बसंती और फुलवा की तरह घुरिया भी खिल उठी | साँवला रंग,
बड़ी आँखे, लंबे बाल, इकहरा बदन और वही नागिन जैसी लहराती चाल | जब माँ तैयार कर
देती तो घुरिया आकर्षक युवती दिखाई देती; पर जैसे ही अपना मुंह खोलती, पता चल जाता कि वो एक सुन्दर सलोनी नवयुवती
नही, अब भी पाँच – छ: साल की बच्ची ही है |
*
अपनी छत पर खड़ी बसंती मौसम का लुत्फ़ उठा रही थी | मौसम बहुत सुहाना हो रहा था | ठंडी-ठंडी हवा जब शरीर को छू के गुजरती
तो एक सुखद एहसास दे जाती आसमान पर भूरे बादल आने लगे और वही घूप-छाँव का खेल शुरू हो गया | कभी धूप आगे
तो छाँव पीछे और कभी छाँव आगे तो धूप पीछे, सामने हरे भरे पार्क से जब छाँव गुजरती
तब वहाँ की घाँस का रंग गहरे काही रंग का दिखाई देता पर वहीं से जब धूप गुजरती तब
वही काही रंग धानी रंग में परिवर्तित हो जाता | प्रकृति का ये सुन्दर नजारा देख कर
उसे अपना गाँव याद आ रहा था |
जब वो, फुलवा और घुरिया ऐसे
मौसम में खेलने निकल जाया करतीं थीं, कभी जामुन तोड़ती तो कभी टिकोरे तोड़ कर उसकी
भुजुरी बना कर खाया करती थीं | भुजुरी बनने के लिए प्याज, नमक और छोटी सी चाकू घर
से छुपा कर ले जाया करती थीं दोनों | सोचते हुए बसंती के चेहरे पर मुस्कान आ जाती
है | अचानक ही बरखा की कुछ बूँदें उसके चेहरे से टकराती हैं और उसके कानों से एक
आवाज ..
”वसूऊऊऊऊ |”
वो अपनी सोच से बहार आ गई | “आई माँ” कह कर वो सब कपड़े समेट कर सीढियों की
तरफ बढ़ गई | अब वो बसंती से वसू हो गई थी, माँ उसे प्यार से वसू ही कहती थी |
सौंधी मिट्टी की खुशबू अब भी उसके नथुनों मे समा रही थी |
“ना जाने फुलवा और
घुरिया कैसी होंगी,
क्या कर रहीं होंगी ?”कपड़े
घरी करते हुए वो माँ से बोली |
“वो भी पढ़ लिख रहीं
होंगी और क्या कर रहीं होंगी,,,अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो आखरी साल है, छुट्टियों में
इस बार गाँव जाने के लिए तुम्हारे पापा कह रहे हैं |”
“अच्छा” !!! चहकते हुए बसंती बोली, उसके चेहरे पर चमक आ गई गाँव जाने के
नाम से |
घरी किये हुए कपड़े उठा कर उसने आलमारी में रख दिया और तरकारी काटती हुई माँ के गले
से लग गई |
“ज्यादा खुश ना हो, अगर
न० अच्छे नही आये तो तुम्हें नही ले जाऊँगी गाँव |” माँ ने तरकारी काटते हुए ही जवाब दिया
| बसंती उठ कर अपने कमरे की ओर बढ़ गई |
*
घुरिया के लिए सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था अचानक उसकी माँ की तबियत बिगड़ी और बिगड़ती
ही गई | उसके दूसरे भाई की शादी होने वाली थी घर में सभी भगवान से मना रहे थे कि
कोई अनहोनी न हो | माँ की बीमारी के कारण उसकी बड़ी भाभी उसका पूरा ख्याल रखती |
घुरिया की माँ उसे सीने से चिपकाये रहती |
*
धीरे
– धीरे घर में शादी की
तैयारी होने लगी, सभी लोग अपने-अपने
कामों में व्यस्त हो गये | इसी दौरान घुरिया धीरे-धीरे घर के बाहर खेलने जाने लगी
| अब वो पहले जैसी साफ सुथरी नही रहती, बाल भी उलझने लगे | जहाँ घुरिया को रोज
नहला कर साफ कपड़े पहनाए जाते थे, वहीं अब वो तीन-चार दिन में कपड़े बदलती | उसकी
दोस्ती अब अपने टोला के बच्चों के साथ हो गई थी, उन्ही के साथ वो खेलती रहती जब
कोई भाई उसे देखता, डांट कर अन्दर ले आता तब वो माँ से चिपट कर खूब रोती | माँ उसे
बहुत ऊँच-नीच समझाती पर ये सब बातें उसे कहाँ समझ आती |
*
भाई की शादी में घुरिया किसी अप्सरा से कम नही दिख रही थी, सरसों के फूल जैसे पीले
रंग के फ्राक और चूड़ीदार सलवार में वो फूल जैसी खिली थी ऊपर से माथे पर छोटी सी
बिंदी, होंठों पर हल्के लाल रंग की लिपस्टिक, लम्बी सी चोटी में पीले रंग की तितली
वाली क्लिप, कलाइयों में मैचिंग की चुडीयाँ और पांवो में सुन्दर नग जड़े हुए चप्पल
..कुल मिला कर किसी परी जैसी दिख रही थी |
घुरिया के दुआर पर बैंड बाजा बज रहा था | एक नचनिया चमचम करती लाल साड़ी, लाली और नकली चोटी लगाए नाच
रही थी | एक ट्रेक्टर-ट्राली पर बड़े-बड़े स्पीकर रख कर उसमे फ़िल्मी गीत बजाये जा
रहे थे |
बारात में जाने के लिए घुरिया के भाइयों के मित्र भी आये थे उन्ही में एक मागेश जो
कि गाँव के ही दबंग राघवेन्द्र राय का बेटा था; अचानक उसकी निगाह घुरिया पर पड़ी |
मागेश उसे इस रूप में देख कर चौंक पड़ा, ऐसा नही था कि वो घुरिया को जानता नही था
या पहले कभी देखा नही था; पर घुरिया ऐसी होगी उसने कभी सपने में भी नही सोचा था |
घुरिया तो आसमान से उतरी हुई अप्सरा जैसी लग रही थी |
परछावन के बाद बरात विदा हो गई, टोला के सारे मर्द बारात चले गये औरते भी थोड़ी देर
गीत गा कर अपने-अपने
घर चली गयीं | दूसरे दिन घुरिया की दूसरी भाभी घर आ गई पर कुछ दिनों बाद ही उसकी
माँ स्वर्ग सिधार गई |
*
माँ के गुजरने के बाद दिन गुजरने लगे | घुरिया की दशा दिन पर दिन खराब होने लगी,
जो कभी अबोध बच्ची जैसी दिखती थी वही अब विक्षिप्त सी लगने लगी थी | बड़ी भाभी
सोचती कि छोटी करे और छोटी भाभी सोचती कि बड़ी करे इसी सोच विचार में घुरिया पिसने
लगी..कई-कई दिन बीत जाता न
उसके बाल बंधते न उसके कपड़े बदलते | उसके सुन्दर लंबे केश आपस में उलझ कर चिपकने
लगे, सिर में जूँ पड़ गये, उसके शरीर और कपड़ों से दुर्गन्ध आने लगी |
जिसे देख कर कभी लोग कहते थे कि भगवान ने सब कुछ दिया घुरिया को बस थोड़ा सा दिमाग
ही देना भूल गये, वही लोग अब उसे पगली कह कर मुंह बिजका देते; पर वो अब भी पगली
नही थी, मन से वो वही मासूम घुरिया थी | एक माँ के न होने से उसकी ये दशा हो गई थी
|
*
कच्चे
ओसारे में एक खटिया पड़ी थी |
घुरिया बैठे-बैठे सिर खुजा रही थी, कभी-कभी उसके नाखून में कोई मोटा सा जूँ फँस
जाता तो उसे वो निकाल कर जमीन पर रख कर अपने अंगूठे के नाखून से मार देती, इतने में टोला के कुछ बच्चे आ गये... “घुरिया दीदी”
“का रे |” जूँ मारते हुए घुरिया बोली
“चला गोली (कंचे) खेले
|”
सुन् कर वो खुश हो गई
“चला, बाकिर पहिले
हमही खेलब |”
घुरिया बोली
“हाँ ठीक बा |” बच्चे राजी हो गये
सभी बच्चे घुरिया के साथ कंचे खेलने लगे, अचानक ही घुरिया के मुंह से चीख निकल गई,
उसने घूम कर देखा तो उसकी भाभी थी, जो उसके बाल पकड़ कर उसे खींचते हुए घर की ओर ले
जा रहीं थी और साथ-साथ बड़बड़ाती भी जा रही थी...
“आवे दा अपने भाई के,
ई रोज-रोज के बवाल खतम कर देत हईं, तनिको लाज नईखे, जवान भयिली बाकिर टोला के लइकन
के साथ गोली खेलल नाही छूटल |”
घुरिया कराहते हुए उसके साथ खींचती जा रही थी |
*
फाइनल इयर के एक्जाम खत्म हो चुके थे बसंती माँ के साथ घर जाने की तैयारी करने लगी
| गाँव जाने की खुशी सबसे ज्यादा इसी बात से थी कि वो घुरिया और फुलवा से मिल
सकेगी |
उधर फुलवा भी होस्टल से घर आ गई, वो तो हर साल छुट्टियों में घर आती थी और बसंती
का इंतजार करती थी कि शायद इस साल बसंती गाँव आ जाये; पर बसंती गाँव छोड़ने के बाद
गुलरी का फूल हो गई थी नही दिखी तो नहीं दिखी | इस साल भी फुलवा को उम्मीद नही थी
कि बसंती गाँव आएगी |
*
ट्रेन को स्टेशन पर दो मिनट ही रुकना था, बसंती और उसकी माँ पहले से ही सारा सामान
दरवाजे के पास रख कर खड़ी थी कि जैसे ही ट्रेन रुकेगी वो लोग तुरंत उतर जायेंगीं,
उन्ही की तरह और भी लोग दरवाजे के पास भीड़ लगा कर खड़े थे | ट्रेन जैसे ही रुकी, किसी तरह धकिया- धुकिया के वो दोनों
सामान सहित प्लेटफार्म पर उतर गईं | भीड़ छंटने के बाद उन दोनों ने इधर-उधर देखा तो
किसन बाबा उन्हें ढूंडते हुए दिख गये, बसंती सामान उठा कर माँ के साथ उनकी तरफ चल
दी तब तक उनकी नजर भी इन दोनों पर पड़ गई, उन्होंने लपक कर बड़ीकी भौजी के पाँव छूए
और बसंती के हाथ से दोनों बैग ले लिया | अब किसन बाबा आगे और वो दोनों उनके
पीछे-पीछे स्टेशन से बाहर आ कर अपनी जीप में बैठ गयीं |
जीप कच्चे रास्ते पर धूल उड़ाती दौड़ती जा रही थी | कच्ची सड़क के दोनों तरफ खेत थे, किसी खेत में पकी हुई गेंहूँ की
बालियाँ झूम रहीं थीं, किसी खेत में गेंहूँ के गट्ठर बना कर रखे थे तो किसी खेत
में कम्बाइन से कटाई हो रही थी | ये सब देख कर बसंती सोच रही थी कि तब में और अब
में कितना अंतर आ गया है गाँव में ! तब जोताई, बोआई, कटाई और ओसाई सब काम
खेतिहर मजदूर किया करते थे और मजदूरी के रूप में अनाज लिया करते थे, जिससे उनकी घर
गृहस्थी का काम चलता था; पर अब तो हर काम मशीन से हो रहा था जो सिर्फ पैसे वालों
के पास था, मतलब भूमिहारों के पास, तो उन
मजदूरों का घर कैसे चलता होगा ? बसंती अभी सोच ही रही थी कि उसकी नजर एक खेत से
उठते हुए धुएं पर पड़ी उसने उत्सुकता वश चाचा से पूछा तो पता चला कि गेंहूँ की
बालियों की कटाई के बाद जो बाकी का हिस्सा होता है वो वहीं खेत में ही जला दिया
जाता है ये उसी का धुँआ था |
बसंती आश्चर्य से बोली–“तो
फिर भूसा कहाँ से आता है ? गाय-गोरू क्या खाते हैं ?”
“अब सबके घर गाय-गोरू
नाहीं हैं और जिसके घर हैं वो अपने मतलब भर का भूसा बना कर बाकी का सब ऐसे ही जला
देते हैं |” किसन बाबा ने जवाब
दिया |
जीप अब गाँव के करीब पहुँच रही थी, बसंती को वो बगीचा दिखने लगा जिसमे कभी वो अपनी
दोनों सखियों के साथ खेला करती थी |
पीपल के नीचे बरम बाबा का थान, नीम के
नीचे कालीमाई का थान और पोखरा के किनारे-किनारे छठ माई का थान, सभी को प्रनाम करते
हुए बसंती बगीचे में प्रवेश कर गई पर अब वो बगीचा भी पहले जैसा घना नही रह गया था,
बहुत से पेड़ काट दिए गये थे | जिस बगीचे में सूर्य देव की किरणें पत्तों से छन-छन
कर जमीन तक पहुंचती थीं, वो अब बेधड़क अपना साम्राज्य स्थापित किये हुए थीं | कुछ
औरते उपले पाथते हुए दिखाई दीं, उनके पास से जैसे ही जीप निकली वो अपना काम रोक कर
बसंती और उसकी माँ को पहचानने की कोशिश करने लगीं | दुआर पर पहुँच कर किसन बाबा ने
जीप रोक दी |
“भौजी आप बसंती के साथ
भीतर जाईं हम सामान ले के अब्बे आवत हयीं |” बसंती की माँ से बोले किसन बाबा |
दोनों भीतर चली गयीं और सबसे मिलने जुलने लगीं |
*
धीरे-धीरे दिन चढ़ रहा था, वो बार-बार
दुआर पर झाँक कर अन्दर आ जाती थी | अब वो पहले की तरह दुआर पर घंटों नही बैठ सकती
थी | गाँव में अब भी बहू बेटियाँ दुआर पर नही बैठती थीं, उसे फुलवा और घुरिया से
मिलने की व्याकुलता थी | आखिर उससे नही रहा गया तो उसने अपनी बड़की अम्मा से पूछा
जो बैठ कर चावल पछोर रही थीं |
“अम्मा...ऊ फुलवा और
घुरिया कहाँ हैं अब ?”
“अरे फुलवा त आईल बा
एहू साल, ऊ हर साल आवेले, तोहके पूछेले, आ घुरिया त घूमत होई, रुका...अबे केहू से
फुलवा के घरे खबर भेजवात हयीं |” कह कर बड़की अम्मा चावल थाली मे ले कर चुनने लगीं
| धीरे-धीरे शाम होने को थी बसंती बेचैन थी, वो फिर से दुआर पर आई तो देखा कि किसन
बाबा चले आ रहे थे |
उसे देख कर बोले..“पंचानन
मिलल रहलें त हम बतवली कि जा के फुलवा से बता दिहा कि बसंती आईल बा |”
ये सुन कर बसंती का चेहरा गुलाब की तरह खिल गया | अभी वो अन्दर जाने को मुड़ी ही थी
कि एक आवाज सुन के वो चौंक गई |
“बसंतीईईईई”.............
मुड़कर देखा तो उसने एक सुंदर सी लड़की गुलाबी सूट में मुस्कुराती हुई उसकी तरफ चली
आ रही थी | बसंती उसे देखते हुए मुस्कुरा दी |
“फुलवा !!” उसे देख आश्चर्यचकित हो बोली बसंती और
लिपट गई दोनों ....
जैसे दो लताएँ आपस में उलझ कर लिपट जाती हैं उसी तरह फुलवा बसंती एक दूसरे की
बाहों में उलझ गई | प्रेम की अधिकता ने उनकी आँखे भिगो दी | आज बरसों बाद दो
धाराएं मिली थी तीसरी धारा कहीं अदृश्य थी |
बसंती फुलवा को माँ के कमरे में ले गई | माँ और बड़की अम्मा भी उन दोनों को खुश देख
कर बहुत खुश थीं | शिकवा, शिकायत, उन दोनों ने इन सालो में क्या-क्या किया, वो सब
बतियाते-बतियाते कब अंधेरा हो गया उन्हें पता ही नही चला, बड़की अम्मा लालटेन जला
कर ले आयीं | गाँव में अब भी बिजली व्यवस्था ठीक नही थी; कभी दिन तो कभी रात में आ जाती थी
बिजली | बड़ी अम्मा के जाते ही फुलवा बोली-
“अच्छा बसंती अब चलती
हूँ…कल फिर से मिलते हैं
|“ उसे जाते हुए देख कर
बड़की अम्मा बोली
“नाहीं बाबू अकेले मति
जयिहा, बड़ा ज़माना खराब भईल बा |“
वो फुलवा और बसंती के साथ बाहर आयीं तो देखा कि किसन बाबा कुछ लोगों से बतिया रहे
थे, उन्होंने किसन बाबा को बुला कर फुलवा को घर तक छोड़ने को कहा | वो चली गई पर
बसंती को अब घुरिया से मिलने की जल्दी थी |
*
दिवस संध्या से मिल कर कब का जा चुके थे | सभी पंक्षी अपने-अपने बसेरो में वापस आ
गये थे, कीट पतंगे भी पत्तों की ओट में छुप गये, संध्या भी निशा की बाहों में समा
गई थी | कभी-कभी कोई बगीचे से गुजरता तो सूखे पत्ते खड़क जाते फिर बगीचे में
सन्नाटा पसर जाता, झींगुरो की आवाज आ रही थी, ऐसे में एक परछाई दूसरे का हाथ थामे
बगीचे के भीतर समाती चली जा रही थी उस ओर जिस ओर बगीचा ज्यादा घना था | दोनों
परछाइयाँ धीरे-धीरे घने अँधेरे में जा कर एक पेड़ के नीचे बैठ गयीं | गिरे हुए सूखे
पत्ते खड़के फिर सन्नाटा हो गया |
“ई कहाँ ले आये हमके,
कुच्छु दिखा नही रहा |”
अँधेरे में उसका हाथ थामे हुए बोली वो | ये लड़की की आवाज थी |
“अरे !! देखु न तोरे
लिए का लाये हम |“
ये एक मर्दानी आवाज थी |
“अच्छा !! त ले आवा दा
|” बोली वो
“ले खो |”
उसे लगा कि उसके होठों के पास कुछ है, उसने मुंह खोल कर खा लिया |
“अरे !! ई त बहुते निम्मन
बा !” खुश होती हुई बोली
वो |
“हाँ, त धीरे बोलु ना,
केहू सुन ली त ऊहो मांगे लागी त देबे के पड़ी, ले ई चाकलेट अब अपनी हाथे से खो |” आदेशात्मक आवाज थी
अंघेरे में ही एक हाथ ने दूसरे हाथ में चाकलेट थमा दिया और वो बड़ी खुशी से खाने
में लग गई, हाथ को मुंह तक जाने के लिए किसी रौशनी की जरुरत नहीं होती |
अचानक ही कोई जानवर भागता हुआ उन दोनों के पास से निकल गया, जल्दी से एक मोटा हाथ
लड़की के मुंह पर ढक्कन की तरह लग गया नही तो उसकी चीख बगीचे में गूंज जाती; शायद
कोई कुत्ता या सियार था | वो फिर खाने में लग गई और वही हाथ उसके मुंह से हट कर
उसके गर्दन, कंधे से होता हुआ उसकी पीठ पर कसता चला गया...वो कसमसाई ..
“छोड़ा खाए द हमके |” बोली वो
पर उसकी बात का कोई जवाब नही मिला | उस परछाई की सांसों की आवाज उसकी कानों तक आ
रही थी, दो हाथ उसके पूरे जिस्म पर रेंग रहे थे, वो कसमसा तो रही थी; पर अपना
चाकलेट छोड़ने को तैयार नही थी, वो खाती रही | इतने में उन दोनों हाथों ने उसे कंधे
से पकड़ कड़ कर सूखे पत्तों पर गिरा दिया, वो कुछ बोलने को हुई तो धीरे से घुड़क कर
बोला वो ..
“चुप रहु नाही त
काल्हि से कुच्छु नाही देब ला के |“
उसका हाथ फिर से उसकी मुंह पर ढक्कन की तरह लग गया..सूखे पत्ते खड़क उठे कुछ टूट कर
दो भागो में बंट गये तो कुछ पिस कर मिट्टी में मिल गये, पीड़ा, सिसकियाँ, कराह, कुछ
घुटी हुई आवाजें, सब अंघेरे ने निगल लिया | आँखों के कोरों से निकला हुआ आँसू
मिट्टी ने सोख लिया, चाकलेट हाथ से छूट कर गिर गया | गुलशन के एक कुम्हलाये हुए
फूल को भी आवारा भँवरे ने नही छोड़ा, उसके डंक से घायल फूल की हर पंखुड़ी बिखर गई थी
|
पेड़ के नीचे हो रही हलचल से ऊपर बैठे पंक्षी जाग चुके थे और सहमे हुए उस बहेलिये
को दरिंदगी से अपना शिकार करते देख रहे थे | थोड़ी देर बाद वो खड़ा हो गया; पर लड़की
वहीं बेसुध पड़ी रही, जब वो खुद से नही उठी तब उसने झुक कर उसे सहारा दे कर उठाया
और उसे ठीक किया फिर उसका हाथ थाम कर बगीचे के बाहर ला कर धमकी भरे लहजे में
बोला..
”तनिको केहू के आगे
मुंह से निकल गईल ई सब त गटइया दबा देब जान लीहे |”
लड़की ने सहम कर ‘ना’ में सिर हिलाया और थके कदमों से लहराती
हुई धीरे-धीरे गाँव में प्रवेश कर गई, दूसरी परछाई उसे वहीं छोड़ दूसरी ओर निकल गई
...
*
सूरज ब्रम्हांड (सिर) पर चमक रहा था, ऐसा लग रहा था कि अपने अन्दर के सारे अंगारे
को आज ही धरती पर गिरा देगा | बगीचा अब भी कराह रहा था, पेड़ पौधे सिसक रहे थे, दिन
की गर्मी से बेकल कई पंक्षी जोड़े पेड़ पर सहमे हुए बैठे थे, वो साक्षी थे उस चिड़िया
की बर्बादी, उसकी दबी सिसकियों, उसकी बेबसी और बहेलिया के बर्बरता की |
*
आज भी पूरा दिन निकलने को था, घुरिया का कहीं पता नही था बसंती उससे मिलने को
बेचैन थी |
“जा
चलि जा आज कहीं घूमि आवा |”
बड़की अम्मा भूजा फटकते हुए बोलीं |
गोंसारी से कई तरह का भूजा भुजा कर आया था, बड़की अम्मा उसी को फटक कर उसमे रह गये
बालू के कण अलग कर रहीं थीं ताकि खाने में दाँतों के नीचे एक भी बालू के कण ना आ
जायें |
“कहाँ जाऊं, ? मन नही
है |” बसंती उदास हो कर
बोली
“का बाति ह बबुनिया,
काहे मन गिरल बा आजु ?”
बड़की अम्मा उसे उदास देख कर बोलीं |
बसंती जा कर बड़की अम्मा के पास खड़ी खटिया बिछा कर बैठ गई और बोली - “एक बात बताइये बड़की अम्मा ? घुरिया
क्यों नही दिख रही है ? कैसी है वो, क्या उसकी शादी हो गई या अब वो इधर आती-जाती
नही ?”
घुरिया का नाम सुनते ही बड़की अम्मा का हाथ रुक गया, हवा में उछला हुआ भूजा कुछ सूप
में तो कुछ आस-पास गिर कर फ़ैल गया बड़की अम्मा के चेहरे पर भी उदासी फ़ैल गई वो
बोलीं ..
”बीयाह कहाँ उनकी भाग
में लिखल बा, के करी उनके साथे बीआह ? न कहीं ठौर न ठिकाना ! गाँव भर घूमेली..जहाँ
जऊन पा जाली, ऊहे खा के पेट भर ले ली |”
बसंती को वो सारी बात बताती चली गयीं | दिल में दर्द और आँखों में आँसू लिए बसंती
भौचक्की सी सब सुनती गई |
*
छुट्टियाँ खत्म होने को थीं फुलवा का ब्याह तय हो गया था, बसंती को वापस कलकत्ते
जाना था, पर वो अभी तक घुरिया से नही मिल पायी थी, कई बार किसन बाबा से कहा उसने
पर हर बार किसन बाबा ने उसके घर जाने से सख्ती से मना कर दिया |
बोले “किसी दिन खुद ही वो
घूमती-घामती आ जायेगी तभी मिल लेना |”
बसंती बहुत उदास थी उसका मन घुरिया को ले कर बहुत परेशान था | कल उसे वापस जाना था,
सारी तैयारी हो गयी थी, वो कुछ भी नही कर पा रही थी उसके लिए | इससे अच्छा तो हम
बचपन में ही थे, कोई भेद भाव नही था, वो तब भी बुद्धि की वैसी ही थी जैसी आज है;
तो आज उसको उसके साथ उठने बैठने से क्यों रोका जा रहा है ? उसका दिल बैठा जा रहा
था जैसे कि कुछ छूटा जा रहा है उससे | काश जाने से पहले एक बार देख पाती घुरिया को
!
*
शाम को ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही थी बसंती उदास ओसारे में बैठी थी इतने में फुलवा भी
आ गई उसे पता था कि कल बसंती को जाना है | दोनों बैठी घुरिया के बारे में ही बतिया
रहीं थी कि अचानक ही किसन बाबा उन दोनों के पास आ कर धीरे से बोले--
“हऊ देखा लोगिन |”
दोनों ने चौंक कर उधर देखा, एक लम्बी सी लड़की मैले कपड़े पहने लहराते हुए अपनी ही
धुन में चली आ रही थी | फुलवा तो अक्सर ही उसे देख लेती थी क्यों कि वो गाँव आती
रहती थी; पर उसे देख कर बसंती का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा जैसे-जैसे वो नजदीक आती
जा रही थी, तस्वीर साफ होती जा रही थी, दुआर पर आते-आते उसे पहचान चुकी थी बसंती |
फुलवा की तरफ़ देखते हुए बसंती के मुंह से निकला ---
“घुरियाआआआ !!!!”
फुलवा ने हाँ में सिर हिला दिया, बसंती का मुंह खुला का खुला रह गया |
“ए घुरिया” किसन बाबा ने आवाज दिया...
सुन कर वो ठिठकी, उसने देखा किसन बाबा की तरफ़, उन्होंने इशारे से उसे आने को कहा |
वो आ कर ओसारे की सीढियों पर बैठ गई, उसकी हालत देख कर बसंती की आँखे भीग गयीं |
उसे वही बचपन वाली घुरिया याद आ रही थी, साफ़ सुथरी, लम्बी चोटी को मोड़ कर दोनों
कानों के ऊपर रिबन से फूल बने होते थे, सांवली सलोनी घुरिया अब कितनी मैली कुचैली
दिख रही थी, बसंती आ कर घुरिया के पास ओसारे की सीढियों पर बैठ गई |
“चीन्हलू के हा ?” किसन बाबा बसंती की तरफ़ इशारा कर के
घुरिया से बोले |
घुरिया ध्यान से बसंती को देख रही थी | चाहते हुए भी बसंती अपने आँसू नही रोक पायी
| अचानक ही घुरिया अपनी मोटी आवाज में चीख पड़ी--
“बसन्तीईईईईईईईईईई
!!!!!!”
अपनी बचपन की सखी को देख कर घुरिया का बाल मन स्नेह के लिए तड़प उठा, वो कुछ भी
सोचे बिना बगल में बैठी बसंती का दोनों हाथ पकड़ कर अपने माथे तक ले गई और
बिलख-बिलख कर रो पड़ी ..अब बसंती से भी नही रहा गया, अपना हाथ छुड़ा कर उसने उसे
अपनी बाहों में भर लिया और दोनों सखियां गले मिल कर रो पड़ीं फुलवा की आँखों में भी
आँसू आ गये, अन्दर से बड़की अम्मा, बसंती की माँ सभी बाहर आ गयीं, ये दृश्य देख कर
सभी की आँखों में आँसू थे | फुलवा ने ही दोनों को अलग किया फिर दोनों ने सहारा
देकर घुरिया को ओसारे में ला कर कुर्सी पर बैठा दिया |
*
तीनों बड़ी देर तक बतियाती रहीं, सभी लोग अपने-अपने काम में लग गये | घुरिया कभी तो
अच्छे से बात करती पर कभी-कभी उसकी बात उन दोनों को समझ नही आती, बसंती उसकी दशा
देख कर आहत थी, वो कभी बचपन की बात याद कर चहक उठती तो कभी न जाने क्या सोच कर
उदास हो जाती |
“बहुत दुखाता...मुड़ी
में ढील हो गईल बा...ऊ भउजी नू...हमार झोंटा नोचेली...खाहू के नाही देली
निम्मन....|” और भी न जाने क्या-क्या घुरिया खुद से ही बोले जा रही थी हाथ उसका सिर
में ही था, जूँ की वजह से खुजला रही थी लगातार | इतना तो तय था कि उसकी दिमागी
हालत धीरे-धीरे खराब होती जा रही थी |
खाने का समय हो गया था | आज बसंती के कहने पर तीनों को केले के पत्ते पर एक साथ खाना
परोसा गया क्यों कि वो दोनों थाली में और घुरिया अकेले केले के पत्ते पर खाना खाती
ये बसंती को मंजूर नही था, हलाकि माँ और बड़की अम्मा दोनों ने मना किया पर बसंती
नही मानी | घुरिया को पूछ-पूछ कर ठीक से खिलाया बसंती ने | ऐसा लग रहा था जैसे
उसने जन्मों अच्छा खाना नही खाया था, खाने के बाद फुलवा को उसके घर छोड़वा दिया
बड़की अम्मा ने | घुरिया फिर से जा कर ओसारे की सीढ़ी पर बैठ गई बसंती उसके पास ही
बैठी थी, वो जो भी पूछती घुरिया उसका ठीक से जवाब नही दे पाती; वो अपने ही धुन में
कुछ का कुछ कहती जा रही थी | बड़की अम्मा और माँ बार-बार उसे घुरिया से दूर बैठने
को कह रहीं थीं पर बसंती का दिल उससे दूर रहने को नहीं कर रहा था, उसे लग रहा था
कि घुरिया को वो कलकत्ता ले जाये और उसका दवा इलाज करा कर अपने साथ रखे; पर वो
विवश थी जानती थी कि माँ कभी नही मानेगी | बहुत रात हो गई, किसन बाबा ने सब को
भीतर जाने को कहाँ, सब चले गये पर बसंती वहीं बैठी रही तब किसन बाबा ने बसंती को
डांट कर कहा ..
“चला तूहूँ भीतर
जा...इनके रोज के काम ह, कहीं ढ़िमिला जयिहें, इनकी खातिर रतिया भर बाहरे बईठबू का
?”
बसंती घुरिया को वहीं छोड़ कर भीतर चली गई | सुबह उठ कर बसंती जल्दी से बाहर आई,
देखा तो सीढियां खाली थीं, कोई भी नही था घुरिया कहीं डगर गई थी, मायूस हो कर
बसंती कलकत्ते जाने की तैयारी में लग गई |
*
धीरे-धीरे समय गुजरने लगा बसंती को गाँव से आये हुए चार महीने हो गये इस बार वो
फुलवा से उसका पता ले कर आई थी | उसकी चिठ्ठी गये हुए बहुत दिन बीत गये थे पर उधर
से कोई जवाब नही आया | बसंती की शादी की बात-चीत माँ पापा में अब घर में होने लगी
थी, कोई लड़का था जो इंजिनियर था और माँ बाप का इकलौता भी, वो घर में सभी को पसन्द
था | गाँव में भी चिट्ठी भेज कर बड़की अम्मा और किसन बाबा से पूछ लिया गया था, सभी
की रजामंदी हो गई थी |
फुलवा का जवाब आ गया, उसकी शादी हो गई थी, वहीं गोरखपुर में ही | घुरिया के बारे
में उसने लिखा था कि “अब
वो बिमार सी रहने लगी है जैसे उसके पेट में कोई बिमारी लग गई हो, उसका पेट
धीरे-धीरे फूलता जा रहा है; पर उसके भाई भौजाइयों को कोई फर्क नही है | वो सब उसे
पीछा छुडाने के लिए किसी दूर की बस में बैठा कर छोड़ दिए थे कि कहीं मर-बिला जायेगी
पर कोई भला मानुस उसे घर छोड़ गया था | अब फिर से पूरे गाँव में भटकती है रातोदिन |
ना जाने कैसे पत्थर के इंसान हैं वो सब ! शरीर कमजोर होने से लाठी के सहारे चलती
है अब |” चिठ्ठी पढ़ कर बसंती
की आँखों में आँसू आ गये |
*
दो महीने बाद ही वहीं कलकत्ते से ही बसंती की शादी हो गई, गाँव से सभी लोग आ गये
थे | बसंती विदा हो कर अपने ससुराल चली गई और सब भूल कर घर गृहस्ती में लग गई |
*
राघवेन्द्र राय गाँव के रईस थे, वैसे तो उनकी उम्र पचास से साठ के बीच थी पर जब वो
अपनी बड़ी-बड़ी मूछों पर ताव दे कर सफारी सूट, आँखों पर काला चश्मा, गले में मोटी सी
सोने की चैन, हाथ की उंगुलियों में अंगूठियां और कलाई पर सुनहरी घड़ी पहन कर निकलते
तो देखने वाले उन्हें देखते ही रह जाते | उनके घर के भीतर के लिए नौकरानियाँ थीं
और बाहर के लिए नौकर, जो गाय गोरु से ले कर बाहर की साफ़-सफाई का काम करते थे |
राघवेद्र राय के दरवाजे पर एक बड़ा सा नीम का पेड़ था, उसी के नीचे कई लोग कुर्सी
डाल कर बैठे थे | वैसे तो हमेशा ही उनके दरवाजे पर बैठकी होती थी; पर आज कल वो
प्रधानी के लिए खड़े थे इसलिए और भी हुजूम रहता था उनके आस-पास |
एक तरफ़ बड़ी सी घारी (जानवरों के रहने का स्थान ) थी | उसी के पास घुरिया बैठी अपने
जूएँ निकाल-निकाल कर मार रही थी | रात में वो वहीं घारी में सो जाती और दिन भर
बाहर बैठी रहती शायद शरीर की कमजोरी की वजह से वो अब ज्यादा इधर उधर घूम नही पाती
थी | घर के नौकर ही उसे भी कुछ खाने को दे दिया करते थे और वो वहीं पड़ी रहती |
कई रोज से राधवेन्द्र राय उसे घारी के पास बैठ कर जूँ मारते देख रहे थे, उस दिन
उन्होंने एक नौकर को बुला कर हजाम को बुलवाया और घुरिया के सिर पर उस्तरा चलवा
दिया फिर घर से दो नौकरानियों को बुला कर कहा कि वो घुरिया को नहला कर कोई साफ
सुथरा कपड़ा पहना दें | मुंह बिचकाती हुई दोनों ने उसे सहारा दे कर खड़ा किया और
भीतर हाते में ले जा कर हैण्डपम्प के नीचे बैठा दिया |
थोड़ी देर बाद ही वही दोनों उसे फिर से ला कर वहीं बैठा गयीं | उन लोगों ने उसे
किसी का पुराना सूट पहना दिया था | ये सब देख कर वहाँ बैठे सभी लोग राघवेन्द्र राय
की सहृदयता की प्रशंसा किये बिना नही रह सके | कितना पुण्य का काम किया था
उन्होंने ! थोड़ी सी छाया थी जहाँ, वहीं जा कर सो गई घुरिया, उसे भी बहुत सुकून
मिला था अपने जूँओं से छुटकारा पा कर | राघवेन्द्र राय उसे बड़े गौर से निहार रहे
थे |
आज फिर अमावस की रात थी सभी लोग जा चुके थे | घर के लोग भी अब घरों में बंद होने
लगे, दुआर पर जो लालटेन टंगा था वो भी ठण्डा (बुझा) कर दिया गया, थोड़ी देर में
घुरिया की तरफ़ एक साया चला आ रहा था, उसने झुक कर उसके कान में कुछ कहा और चला गया
घुरिया लाठी के सहारे उठी और घारी के भीतर चली गई | आज कल बारिश नही हो रही थी तो
घर के सभी गाय-गोरू रात में बाहर नाँद पर ही बधें रहते थे |
कुछ देर बाद ही घारी का दरवाजा अन्दर से बंद हो गया | फिर से रात सिसक उठी, धरती
ने फिर से आँसू पी लिए, अंधेरो ने सब कुछ देख कर भी अपनी आँखे बंद कर ली, कुछ दबी
घुटी कराह घारी की ईंट की दराजो में समा गई,
थोड़ी देर बाद ही घारी का दरवाजा खुला और वो साया बाहर निकल कर एक तफर चला
गया, घुरिया वहीं बेसुध पड़ी रही |
*
कुछ दिनों के बाद ही जाड़े का आगमन होने वाला था | घुरिया का शरीर धीरे-धीरे सूखता
जा रहा था; पर पेट ऊपर की ओर आ रहा था | कोई पथरी तो कोई हवा बयार बता रहा था,
जितने मुंह उतनी बातें |
कुछ दिनों बाद राघवेन्द्र राय ने गाँव के बाहर उसके लिए एक फूस की मड़इया छवा दी
उसी में एक गगरी में पानी और एक चट्टाई बिछा दी गई, अब यही घुरिया का नया बसेरा था
| उसे दोनों समय का खाना-पानी गाँव से कोई ना कोई दे जाता था | अब अक्सर रात में
सियार के रोने की आवाज पूरे गाँव को सुनाई पड़ जाती थी |
*
समय बीतने के साथ घुरिया जर्जर हो कर
हड्डियों का ढांचा बन गयी थी; पर उसका पेट बाहर को आ गया था जो अब पूरे गाँव में
चर्चा का विषय बन गया था | हर घर में उसी की चर्चा थी, सभी की हमदर्दी थी उसके साथ;
पर ये सब किसने किया, कोई नही जानता था |
जब भी कोई उसे खाना देने जाता वो उदास बैठी रहती थी, उसका हँसना बोलना सब बंद हो
गया था | अब तो उसके आस-पास से ‘बास’ भी आने लगी थी, उसके पास जाने से हर
कोई कतराने लगा था, उसके घर वाले और समाज के ठेकेदारों ने उसे उसके भाग्य पर छोड़
दिया था |
*
दोपहर का समय था, बसंती सारा काम खत्म कर के अपने कमरे में आराम करने जा रही थी तब
तक दरवाजे पर खट-खट की आवाज हुई | बसंती ने जा कर दरवाजा खोला तो डाकिये ने उसके हाथ
में एक चिट्ठी पकड़ाई और चला गया | चिट्ठी पिपरौंसी से आई थी | बसंती का चेहरा खिल
उठा, काफी दिनों से गाँव का कोई समाचार नही मिला था उसे | बड़ी खुशी–खुशी उसने अंतर्देशीय पत्र खोला और पढ़ने
लगी | पढ़ते पढ़ते उसकी आँखों में आसूं आ गये, उसने जल्दी से जा कर अपनी सास को पूरी
बात बताई | बड़की अम्मा की तबियत बहुत खराब थी, उसे देखने के लिए तुरंत बुलाया गया
था |
*
पति को छुट्टी न मिल पाने के कारण बसंती अपने मम्मी-पापा के साथ गाँव आ गई थी; पर
उनके आने से पहले ही बड़की अम्मा स्वर्ग सिधार गई थीं | उनका अंतिम दर्शन भी नही कर
सकी वो | बड़की अम्मा की तेरवीं तक घर रिश्तेदारों से भरा रहा उसे घुरिया की याद तो
आई पर उसके बारे में किसी से पूछने का मौका नही मिला | तेरवीं में उसके पति भी आ
गये थे, उन्ही के साथ उसे दो दिन बाद ही वापस लौटना था | धीरे-धीरे सभी रिश्तेदार
जा चुके थे, बसंती ने भी अपना सामान समेटना शुरू कर दिया था |
*
उस दिन जैसे ही वो ओसारे में आई तो देखा कि क्या स्त्री क्या पुरुष हर कोई बगीचे
की तरफ भागा जा रहा है !!
“इतनी सर्दी में ये
लोग बगीचे की तरफ क्यों जा रहे हैं ?” भीतर आ कर उसने माँ से कहा |
ये सुन कर माँ भी बाहर आ कर देखने लगीं, उसके पति भी उसके पास खड़े हो कर माजरा
समझने की कोशिश कर रहे थे | बसंती से रहा न गया, उसने जाती हुई एक महिला को रोक कर
पूछा--
“का हुआ है ? काहें सब
बगीचे की तरफ़ भागे जा रहे हैं ?”
“ऊ घुरिया के कुच्छु
हो गईल बा बुझाता !! ईहे सुन के हमहूँ देखे जात हयीं |” महिला रुके बिना ही ये कहते हुए भागती
चली गई |
धुरिया का नाम सुन कर बसंती चौंक पड़ी | वो सोचने लगी “क्या हुआ घुरिया को ?” उसका दिल धक-धक करने लगा उसने पति की
तरफ़ देखा और बोली--
“चलिए हम भी देखते हैं
कि क्या हुआ उसे |”
वो दोनों भी धड़कते दिल के साथ बगीचे की तरफ़ बढ़ गये, उसने अपने पति को घुरिया के
बारे में सब कुछ बताया था |
घुरिया की मड़इया के आस-पास बहुत भीड़ लगी थी | किसी तरह से बसंती भीड़ में घुस कर
रास्ता बनाती हुई मड़इया तक पहुँच गई; फिर उसने जो दृश्य देखा !! उसकी चीख निकल गई,
वो अपना मुंह दबा कर फूट-फूट कर रो पड़ी |
घुरिया अर्धनग्नावस्था में पड़ी थी, उसके दोनों पैरों के बीच में गर्भनाल में लिपटी
हुई एक बच्ची खून और गंदगी से सनी हुई अपना हाथ पैर चला रही थी, शायद वो उस बन्धन
और गंदगी से बाहर आना चाहती थी |
गाँव भर के लोग तमाशबीन खड़े थे | वो बच्ची कब से गंदगी में अपने हाथ पैर मार रही
थी | बसंती के पति भी उस तक पहुँच गये थे, ये दृश्य देख कर वो भी सिहर गये; पर
तुरंत ही संभल कर उन्होंने कुछ लोगों से बात की कि जो भी पास में कोई डा० मिले उसे
तुरंत ही बुलाया जाय | अब कुछ लोग हरकत में आये और जल्दी से दूसरे गाँव डा० साहब
को बुलाने के लिए एक आदमी को भेजा गया क्यों की पिपरौंसी में सरकारी प्राथमिक
चिकित्सालय तो था; पर उसमे बारहों महीने कमर तक घास उगी रहती थी, डा० साहब भी
नदारद रहते थे | सभी देख रहे थे पर आगे बढ़ने की हिम्मत कोई भी नही जुटा पा रहा था
| गाँव की दाई भी आ गई थी, डा० साहब ने आ कर सबसे पहले बच्ची को गर्भनाल काट कर
अलग किया, अब तक गाँव की कुछ औरतों को अपना फर्ज याद आ गया था, दौड़-दौड़ कर सबने सब
सामान एकत्र कर लिया था | दाई ने बच्ची को गरम पानी से नहला दिया, अब बच्ची वो
किसे दे ? उसने इधर-उधर देखा बसंती खड़ी-खड़ी सिसक रही थी, उसका अंतर्मन क्रोध से
धधक रहा था, इतना ओछा काम किसने किया होगा ? उसने अपनी हवस पूरी करने के लिए
घुरिया को भी नही बक्शा, जो कि दिमागी रूप से कमजोर थी, शरीर से मैली-कुचैली, बास
आती देह से भी अपनी हवस बुझा लिया, इन हवस के भेड़ियों को मात्र एक मादा शरीर चाहिए
नोचने के लिए भले ही वो एक लाश ही क्यूँ ना हो, घुरिया एक चलती-फिरती लाश ही तो थी
!
उसे अब भी भरोसा नही हो रहा था, जो कुछ भी वो देख रही थी उस पर | उसने दाई की मंशा
भाप ली जल्दी से आगे बढ़ कर उसने बच्ची को अपने आँचल में ले लिया और अपनी शाल में
ढक लिया | डा० ने घुरिया को मृत घोषित कर दिया | बगीचा में उसी जगह जहाँ घुरिया कई
बार मर चुकी थी,
उसकी चिता जला दी गई, उसकी मड़इया गिरा कर आग लगा दी गई, उसके अन्दर की सारी गंदगी
जल कर स्वाहा हो गई, घुरिया का नामोनिशान मिट गया !
*पच्चिस साल बाद ..........
बसंती ने अपने पति के सहयोग से अपनी सखी घुरिया की याद में ‘घूरी देवी’
के
नाम से एक संस्था खोली थी जिसके माध्यम से दूर दराज के गाँवों की निरक्षर महिलाओं
को साक्षर किया जाता था,उन्हें डलिया, खाँची,
हाथ
पंखा,चट्टायी आदि बनाना सिखा कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जाता था
और ऐसी बच्चियाँ जो दिमागी या शारीरिक रूप से विकलांग थी,
जिनका
कोई देखभाल करने वाला नही था, उन्हें ढूंड कर संस्था गोद लेती थी और उनका
पालन-पोषण और उनकी शिक्षा का पूरा ख्याल रखा जाता था ताकि फिर से कोई परछाई रात के
अंधेरे में उन्हें रौंद ना सके न ही फिर कोई घुरिया एड़ियाँ रगड़ कर इस दुनिया से
विदा हो और न ही किसी करिश्मा का जन्म हो |
बसंती ने संस्था के लिए दिन रात एक कर दिया | शुरुआत छोटे स्तर पर हुयी थी पर
संस्था के कार्यों की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी जिससे संस्था को सहयोग भी मिलने
लगा था | आज जिला मजिस्ट्रेट
द्वारा ‘घूरी देवी संस्था’ को सम्मानित किया जाना था |
बड़ा
सा पंडाल लगा था, बड़े-बड़े गणमान्य लोग बैठे थे |
मंच
से जब संस्था की अध्यक्षा का नाम पुकारा गया; तब बसंती के बगल में बैठी एक सुन्दर
सी युवती, जिसकी उम्र कुछ चौबीस या पच्चीस की होगी, लाल रंग की
बाडर वाली सफ़ेद साड़ी और बंद गले का लाल ब्लाउज, गले में सोने
की पतली सी चैन, एक हाथ में घड़ी और दूसरे हाथ से अपना पल्लू
संभालते स्टेज की तरफ़ बढ़ गई | पूरा पंडाल तालियों से गड़गड़ा उठा |
शाम हो चुकी थी घर के बाहर गाड़ी रुकते ही करिश्मा की सहेलियों ने उसे घेर लिया और
बधाइयों का सिलसिला शुरू हो गया | करिश्मा को छोड़ कर बसंती और उसके पति अन्दर आ
गये | कमरे में वही बचपन की फोटो (जिसमे बसंती, घुरिया और फुलवा थी),
टंगी
हुयी थी | बसंती घुरिया को देख कर भावुक हो जाती है और अपने पति का हाथ
पकड़ कर कहती है --
“दस वर्ष पहले जो संस्था खोली थी, उम्मीद नही थी कि इस मुकाम
पर पहुँचेगी, आप का सहयोग ना होता तो मैं कुछ भी ना कर पाती |”
उसकी
आँखों में आँसू थे |
“नहीं .. ये
तुम्हारी मेहनत,लगन और अपनी सखी के प्रति तुम्हारे प्रेम का नतीजा है जो संस्था
यहाँ तक पहुँची है, घुरिया का नाम कभी मिटने नही दिया तुमने, अब तुमने इसकी
जिम्मेदारी करिश्मा को सौंप कर बहुत अच्छा किया |” पति ने बहुत
ही प्रेम से उसके आँसू पोंछते हुए कहा और भीतर चले गये |
बसंती सिसक पड़ी “घुरिया को मैं
कैसे मरने देती, संस्था से उसका नाम और करिश्मा के रूप में वो खुद जीवित है, हर पल
मेरे करीब है, मैंने कभी भी उसको खुद से दूर नही महसूस किया, वो तो मेरी साँसों
में बसती है, बसंती मर जायेगी पर घुरिया कभी नही मर सकती..कभी नही”.......बुदबुदाते हुए बसंती फूट फूट कर रो पड़ी
|
तब तक करिश्मा भी आ गई | बसंती को उन्ही तीन लड़कियों की फोटो के सामने
यूँ बिलख कर रोते देख चौंक पड़ी |
“माँ...माँ....क्या हुआ ?” करिश्मा ने उसे पकड़ कर सोफे पर बैठा दिया और
उसको चुप कराने लगी, तब तक उसके पापा भी आ गये, वो बसंती को समझाने लगे, करिश्मा
दौड़ कर एक गिलास पानी ले आई और बसंती को पिलाया, जब वो थोड़ा सामान्य हुई तो करिश्मा
बोली –
“माँ..आपने कभी नही बताया कि ये कौन-कौन हैं ? मैंने जब भी
पूछा आपने टाल दिया, आज आप को बताना ही होगा कि इनसे आप का क्या रिश्ता है ? आखिर
कौन हैं ये ? जिनके लिए मैंने अक्सर आपको आँसू बहाते हुए देखा है और आज तो हद ही
हो गई ! आप को अपनी सेहत का जरा भी ध्यान नही ?”
“बस् इतना जान ले कि इसमें से एक तेरी माँ है बेटी, जिसकी वजह
से संस्था का वजूद है; अगर वो ना होती तो तू या तेरी संस्था भी ना होती |”
अपनी
हिचकियों पर काबू पाते हुए बसंती बोली |
करिश्मा उसके गले से लग गई और बोली “ये तो मुझे भी पता है कि इनमे से एक मेरी
प्यारी सी माँ है |” बसंती ने उसका माथा चूम
लिया, करिश्मा उससे बेल की तरह लिपटी हुई थी ||
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लमही में प्रकाशित