Thursday, January 17, 2013

शरारत



रात के ९ बजे हैं | डोर बेल बजता है | मैं बेटे को आवाज दे कर बोली - देखो पापा जी आ गये, गेट खोलो जा कर | बेटे ने दौड़ कर गेट खोल दिया | पतिदेव अन्दर आते हैं और गाड़ी खड़ी कर के सीधे रसोई की तरफ बढ़ते हैं | सब्जी का थैला रखते हुए मेरी तरफ देख कर घबरा जाते हैं |
अरे !! शालू क्या हो गया तुम्हे ? क्यों रो रही हो ? जल्दी से आ कर मेरे पास बैठ जाते हैं और मेरे आँसू पोछने लगते हैं | क्या हो गया शालू किसी ने कुछ कहा क्या ? मैंने तो तुम्हे कुछ कहा नही फिर क्या हुआ तुम्हे ? क्यों रो रही हो ?
बेटे को आवाज दे के पूछते हैं - मम्मी को किसी ने कुछ कहा क्या ? बेटा भी ना में सिर हिला देता है और मेरी तरफ देखने लगता है |
ये बोले - बोलती क्यों नही,क्या हुआ ? तब मैं पलकें झपकाते हुए बोली - क्या करूँ , जब भी मैं ये काम करती हूँ मुझे रोना आ जाता है | मैं अपने आँसू नही रोक पाती | 
क्यों करती हो वो काम जिससे तुम्हे रोना आता है | मेरे आँसू पोंछते हुए ये बोले |
मैं नही करुँगी तो कौन करेगा | घर के सारे काम मुझे ही करने होते हैं | कोई नौकर थोड़े ही लगवा रखा है आप ने | मैं थोड़ा गुस्से मे बोली |
अच्छा बाबा मैं ही कर दूँगा वो काम | आज के बाद तुम्हारी आँखों से एक भी आँसू नही गिरने चाहिए समझी | चलो अब मुस्कुरा दो | ये मुस्कुराते हुए बोले |
मैंने भी मुस्कुराते हुए अपना दोनो हाथ उनके ओर बढ़ा दिया और बोली - लो जी शुरू हो जाओ फिर देर किस बात की | मेरे एक हाथ में प्याज ओर दूसरे में चाकू देख कर ये सारा माजरा समझ गये |
पतिदेव मुस्कुराये और ये बोलते हुए रसोई से बाहर निकल गये कि "ये सब तुम्हारा काम है" | (प्याज काटने की वजह से मेरी आँखों से पानी गिर रहा था जिसे मेरे पतिदेव आँसू समझ बैठे थे ) तुम ही करो |
मैंने अपनी आँखें पोंछी और फिर जुट गई प्याज काटने में पर पतिदेव से ये शरारत कर के मैं बहुत खुश थी |



मीना पाठक 

Wednesday, January 16, 2013

पत्थर दिल

सुनों देव 

तुम पत्थर हो पत्थर | समझ रहें हो ना मैं क्या बोल रही हूँ | तभी तो तुम तक मेरी कोमल भावनाएं नहीं पहुँच पाईं आज तक | तुम्हे पूज-पूज के भगवान तो मैंने ही बनाया फिर भी तुम पत्थर के पत्थर ही रहे | सुना था कि तुम भोले हो थोड़े से प्रेम से ही प्रशन्न हो जाते हो पर मुझे तो वर्षों बीत गये तुम्हारी आराधना करते करते पर तुम वही के वही |

कभी - कभी तो लगता है कि मेरी पूजा सफल होने वाली है पर अगले ही पल तुम्हारी भृगुटी तन जाती है | तुम पत्थर हो और पत्थर ही रहोगे जीवन भर | इतने वर्षों में तुम्हारा हृदय परिवर्तन नहीं हुआ तो अब क्या होगा | अब तो मेरी भी उम्मीद जवाब दे रही है | शायद मेरी पूजा - अर्चना में ही कोई कमी रह गई जो तुम आज तक नही पिघले |

पर मेरी उन भावनाओं का क्या जो तुम तक आज तक नही पहुँची  पाईं | पर अब मैं भी कोशिश नही करुँगी कि तुम मेरी भावनाओं को समझो | वो मेरी हैं और मैं अपने पास ही सम्भाल के रक्खुंगी | क्यों कि पत्थर पर सिर पटक - पटक के मैंने अपना माथा और आत्मा दोनों लहुलूहान कर रखा है \

मैं इस दर्द के साथ अकेले ही जी लूँगी | तुम बैठे रहो अकेले पत्थर बन के | प्रणाम करती हूँ तुम्हे दूर से ही |

मीना पाठक 

Tuesday, January 1, 2013

संकल्प - मीना पाठक

मीना पाठक
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कड़े नियम कानून की मांग के साथ-साथ हम सब को अपने अन्दर भी झांकना होगा | हम अपनी जिम्मेदारियों से मुंह नही मोड़ सकते | हम सभी को आत्ममन्थन करना होगा कि माँ- -बाप और शिक्षक होने के नाते हम बच्चों को क्या सिखा रहें हैं और अपने आप से एक वादा करना होगा हम सभी को कि आगे से हम ऐसा नही होने देंगें | इसी वादे के साथ नए वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ आप सभी को ..

शापित

                           माँ का घर , यानी कि मायका! मायके जाने की खुशी ही अलग होती है। अपने परिवार के साथ-साथ बचपन के दोस्तों के साथ मिलन...