Monday, February 13, 2017

कुछ ऐसा हो इस बार आप का ‘वैलेंटाइन डे'

फरवरी माह आते ही सभी प्रेमी जनों के दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं | सभी अपनी-अपनी तरह से वैलेंटाइन डे मनाने और अपने साथी को सरप्राईज देने की तैयारी में जुट जाते हैं | वैसे हमारे हिन्दुस्तनी परम्परा में ऐसा कोई दिन निर्धारित नही किया गया है | हमारे यहाँ तो इन दिनों वसंतोत्सव मानने की परम्परा रही है पर इस इंटरनेट के युग में बहुत से विदेशी त्योहारों ने हमारे यहाँ भी दस्तक दे दी है और इन्हें हमारे यहाँ भी जोर शोर से मनाया जाने लगा है खासकर आज की युवा पीढ़ी इन्हें बहुत ही उत्साह से मना रही है हलाकि बहुत से संगठन इसका विरोध भी करते हैं परन्तु इस भागती-दौड़ती, तमाम परेशानियों और तनाव भरी ज़िंदगी से अगर एक दिन प्रेम के लिए निकाल लिया जाय तो बुरा भी क्या है ! वैसे तो प्रेम को किसी एक दिन में समेटा नहीं जा सकता फिर भी इसी बहाने अपने साथी को कुछ समय देने के साथ-साथ वो उनके लिए कितने महत्वपूर्ण हैं..इसका एहसास करा सकें तो हर्ज़ ही क्या है ! पर हर दिन को मनाने का अपना अपना तरीका होता है | आजकल हर तीज-त्यौहार का व्यवसायीकरण हो गया है | कम्पनियों के झाँसे में हमारा युवा वर्ग बुरी तरह फँसा हुआ है और दिल खोल कर पैसे खर्च रहा है | इस दिन ना जाने कितने कार्ड..बुके..गुलाब.. चॉकलेट्स और भी ना जाने कितनी तरह के गिफ्ट बिक जाते हैं और कम्पनियों के वारे न्यारे हो जाते हैं | कम्पनियाँ बड़ी ही चालाकी से आपसे आपकी ही जेब का पैसा निकालवा लेती हैं | इस लिए इन त्योहारों को मनाने में थोड़ी सतर्कता बरतनी चाहिए | प्रेम का दिन है इस लिए इसे प्रेम से मनाएँ जरूरी नहीं कि आप के मित्र का साथी अगर अपने साथी को कोई कीमती उपहार दे रहा है या कहीं बाहर लंच या डिनर के लिए ले जा रहा है तो आप भी अपने साथी से यही उम्मीद करें | इस दिन घर में कुछ अच्छा सा अपने हाथों से बना कर लंच,डिनर घर पर भी कर सकते हैं | इससे एक तो पैसे की बचत होगी दूसरे आप ज्यादा समय अपने परिवार के साथ बिता पायेंगें | मँहगा बुके देने की अपेक्षा आप अपने बगीचे में खिले हुए ताजे गुलाब भी भेंट कर सकते हैं या आप के साथी ने जो भी उपहार अपने पॉकेट के अनुसार आप के लिए सलेक्ट किया है आप उसे ही खुशी से स्वीकार कर इस दिन को बेहतर बना सकते हैं | कोई भी त्यौहार मँहगे गिफ्ट या मँहगे रेस्टोरेंट में लंच, डिनर लेने से सफल नहीं होता बल्कि आपसी समझ-बूझ और एक दूसरे पर अटूट विश्वास से सफल होता है | एक दूसरे की जरूरतों..पसंद ना पसंद..भावनाओं का ख़याल रखना व रिश्तों में स्पेस बना कर चलना ही रिश्तों को दूर तक ले जाता है नहीं तो आज के इंटरनेट के युग में एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखने का चलन बढ़ता जा रहा है और विश्वसनीयता खत्म होती जा रही है | ऐसे में ये दिन बहुत ही महत्वपूर्ण है अपने साथी को ये बताने के लिए कि आप मेरे लिए कितने खास हो | इस लिए इस मंदी के दौर में आप इसे अपनी तरह से भी मना सकते हैं | प्रेम में आडम्बर और दिखावे के लिए स्थान ही कहाँ होता है |
कोई भी उत्सव हमारे अकेले का नहीं होता..उसमे बच्चे व परिवार भी सम्मिलित होते हैं..और हम हिन्दुस्तानी हर उत्सव अपने परिवार संग मनाते हैं..तो चलिए मनाते हैं चौदह फरवरी को वैलेंटाइन डे..अपने परिवार..अपने बच्चों और प्रियजनों के साथ |


मीना पाठक


Tuesday, August 16, 2016

कुछ बातें मेरे मन की


कुछ दिनों पहले मैंने एक आलेख लिखा था और दिल्ली के दामिनी केस की चर्चा करते हुए कई सवाल रखे थे | वो आलेख जब मैंने एक पत्रिका के संपादक महोदय को भेजा तो उन्होंने ये कह कर आलेख वापस कर दिया कि आपके आलेख में बहुत पुराने विषय की चर्चा की गयी है | मैं हर वक्त सोचती रहती हूँ कि क्या उस संपादक महोदय ने सच बोला था ? क्या बलात्कार एक विषय भर है ? जो घटना एक स्त्री की मर्यादा तार-तार कर देती है और उसे जीवन भर के लिए अभिशप्त बना देती है, वह एक विषय मात्र है ?? कोई भी इतने हल्के में इस बात को कैसे ले सकता है ?
हर रोज के अखबार गैंग रेप की घटनाओं से रंगे रहते हैं
| आखिर ये कौन लोग हैं जिनके हौसले इतने बुलन्द हैं कि एक के बाद एक घटनाओं को अंजाम देते जा रहे हैं ? इन्हें ना तो प्रशासन का कोई डर है ना दण्ड का खौफ़ ! समझ में नहीं आता कि हम, मुगलकाल में रह रहे हैं या अंग्रेजी शासन में, जब हम गुलाम थे और हमारे साथ बदसलूकी होती थी | वो तो पराये थे, दूसरे देश के थे पर आज तो हम आजाद हैं और आजादी की ७०वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं फिर देश की आधी आबादी का ये हश्र क्यूँ है ?
आखिर सब किस दिशा में जा रहे हैं
| एक तरफ विकास की बात होती है तो दूसरी तरफ बेटी बचाओ बेटी पढाओ का नारा दिया जाता है | वहीं कहीं भी बेटियां सुरक्षित नहीं हैं ? इस तरह की जब भी कोई घटना घटती है तो हर राजनीतिक पार्टी अपना पल्ला झाड़ कर दूसरी पार्टियों पर आरोप-प्रत्यारोप करते दिखाई देती हैं | 
आये दिन सामूहिक बलात्कार की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं फिर उन घटनओं पर कुछ दिन तो राजनीति गर्म रहती है
, तमाम न्यूज चैनल्स पर डिबेट होते हैं फिर सब कुछ शांत हो जाता है | वहीं अगर पीडिता के नाम के आगे कोई विशेष जाती या सम्प्रदाय जोड़ दिया जाए तो वह पीड़ा पूरे देश और सभी राजनीतिक पार्टियों की हो जाती है | 
यह कौन सा कानून है
? समझ में नहीं आता | बंद कीजिये आप लोग, इतनी घिनौनी राजनीति करना |
जो पार्टी चुनाव के समय जनता को पूरी सुरक्षा का वायदा करती है
, चुन लिए जाने पर वही पार्टी अराजक तत्वों को पूरी छूट देती नजर आती है और आम आदमी डरा हुआ होता है | दिल्ली, बुलंद शहर, बरेली हो या मुरुथल इन घटनाओं के बाद आज परिस्थितियाँ यह हैं कि कोई पुरुष भी अपनी पत्नी या बेटी को लेकर घर से निकलने पर दस बार सोचेगा | अपने ही शहर में अकेले तो क्या अपने परिवार के पुरुष सदस्यों के साथ भी बाहर निकलने में हम स्त्रियों की रूह काँप रही है | तो क्या अब हमें घर पर बैठ जाना चाहिए ? बाहर नहीं निकलना चाहिए ? या घर में भी हम सुरक्षित हैं ? कई सवाल हैं,जिनके जवाब हमें चाहिए |
छुटभैयों को छोड़ दीजिए तो बड़े-बड़े राष्ट्रीय नेता जब ये कहें कि
 लड़के हैं, हो जाती है उनसे गलती तो उन्ही के शासनकाल में स्त्रियाँ कैसे सुरक्षित हो सकती हैं ? सोचने की बात है |
मैं कोई पत्रकार नहीं हूँ ना ही कोई बहुत बड़ी आंकड़ों की जानकार हूँ; पर इस देश की आधी आबादी में से एक हूँ | हम आधी आबादी के लिए कोई भी सरकार क्या कर रही है ? ये घटनाएँ राज्य ही नहीं पूरे देश में देखने को मिल रही हैं | हम आधी आबादी जो इस देश का भविष्य निर्धारित करने में अहम भूमिका निभातीं हैं, उनके भविष्य को लेकर देश-प्रदेश की सरकारें कितनी गंभीर हैं ? ये बताने की आवश्यकता नहीं है, सभी बुद्धिजीवी जानते हैं |
अंत में इतना ही कहूँगी की मुख्यमंत्री महोदय ! जिस दिन आप सभी की बहू-बेटियों को अपने घर की बहू-बेटी मान लेंगे, उस दिन कम से कम ये प्रदेश बलात्कार मुक्त हो जायेगा, यह मुझे विश्वास है | जिस तरह आप अपने घर की स्त्रियों को सुरक्षा प्रदान करते हैं, उसी तरह प्रदेश की सभी स्त्रियों की सुरक्षा का संकल्प लें और इस जिम्मेदारी को इमानदारी से निभाएं | 
प्रधान मंत्री जी से भी मेरी ये गुजारिश है कि वह देश में स्त्रियों के साथ हो रहे इस अमानुषिक अनाचार के खिलाफ कुछ कड़े कदम तुरंत उठायें
| हम जानते हैं कि आप बहुत कुछ कर सकते हैं; पर आप हमारी सुरक्षा के लिए गंभीर नहीं हैं, ऐसा हमें लग रहा है नहीं तो देश की महिलाओं के साथ इस तरह की अपमानजनक घटनाएँ नहीं घटती | अगर देश की महिलाएँ सुरक्षित नहीं हैं तो आप का यह नारा बेमानी हो जाता है कि बेटी बचाओ,बेटी पढाओ, या पढेंगीं बेटियाँ तभी तो बढ़ेगीं बेटियाँ | उस देश का विकाश कभी नहीं हो सकता जहाँ स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं | सर ! हमें आपसे बहुत उम्मीदें थीं पर अपनी सुरक्षा को ले कर हम बहुत निराश हुए हैं आप से |
पहले आप सभी
'ला एण्ड आर्डर' के रखवाले, पालन करवाने वाले, सभी मिल कर हम आधी आबादी की सुरक्षा का वचन दें नहीं तो आप हमारे बिना निर्विरोध चुन लिए जायं, ये हो नहीं सकता | आप हमें सिर्फ भयमुक्त वातावरण दीजिए, अपनी मंजिल हम स्वयं तय कर लेंगीं नहीं तो जिस दिन देश की आधी आबादी अपने पर आ जायेगी उस दिन आप की कुर्सी खिसक जायेगी और आप फिर दोबारा कुर्सी पर बैठने को तरस जायेंगे, सुन् रहे हैं ना आप लोग !!

मीना पाठक


Monday, June 13, 2016

हेप्पी फादर्स डे

पूरे विश्व में जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाया जाता है | भारत में भी धीरे-धीरे इसका चलन बढ़ता जा रहा है | इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बढती भूमंडलीकरण की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है और पिता के प्रति प्रेम के इज़हार के परिप्रेक्ष्य में भी |
लगभग १०८ साल पहले १९०८ में अमेरिका के वर्जीनिया में चर्च ने फादर्स डे की घोषणा की थी | १९ जून १९१० को वाशिंगटन में इसकी आधिकारिक घोषणा कर दी गयी | अब पिता को याद करने का एक दिन बन गया था पर क्या पिता को याद करने का भी कोई एक दिन होना चाहिए ? मुझे तो समझ नहीं आता | यह पश्चिम की परम्परा हो सकती है पर हमारे यहाँ तो नहीं | पश्चिम में जहाँ विवाह एक संस्कार ना हो कर एक समझौता होता है, एग्रीमेंट होता है | ना जाने कब एक समझौता टूट कर दूसरा समझौता हो जाय, कुछ पता नहीं होता | ऐसे में बच्चों को अपने असली जन्मदाता के बारे में पता भी नहीं होता होगा | इसी लिए शायद पश्चिम में फादर्स डे की घोषणा करनी पड़ी होगी ताकि बच्चे अपने असली जन्मदाता को उस दिन याद करें पर हमारे यहाँ तो पिता एक पूरी संस्था का नाम है, पिता एक पूरी व्यवस्था, संस्कार है, हमारा आदर्श है | हमारे यहाँ कोई भी संस्कार पिता के बिना संपन्न नहीं होता | वही परिवार का मुखिया होता है और परिवार को वही अनुसाशन की डोर में बांधे रखता है | हम उन्हें एक दिन में कैसे बाँध सकते हैं जिन्होंने हमें जन्म दिया, एक वजूद दिया, चलना, बोलना और हर परिस्थिति से लड़ना सिखाया, उनके लिए सिर्फ एक दिन ! जिनके कारण हमारा अस्तित्व है उनके लिए इतना कम समय !
मुझे याद नहीं आता कि बचपन में मैंने कोई फादर्स डे जैसा शब्द सुना था | यह अभी कुछ सालों में ज्यादा प्रचलित हुआ है जब विदेशी कंपनियों ने इस डे वाद को बढ़ावा दिया है | इतने सारे डेज की वजह से ये कंपनियां करोड़ों रूपये अंदर करती हैं और हम खुश होते हैं एक डे मना कर या शायद विदेशों की तरह हमारे यहाँ भी रिश्तों की नींव दरकने लगी है | संयुक्त परिवार टूटने लगे हैं | एकल परिवारों का चलन बढ़ गया है | परिवार के नाम पर पति ,पत्नी और केवल बच्चे हैं
| पिता परिवार से बाहर हो चुके हैं और हाँ, माँ भी | पिता अकेले पड़ गए हैं, उनके बुढ़ापे की लाठी कहीं खो गयी है, है तो बस जीवनसाथी का साथ, वह भी भाग्यशाली पिता को |
हमारे ऊपर पश्चिमी संस्कृति हावी होती जा रही है | पिता के लिए घर में कोई स्थान नहीं ,वे बोझ लगने लगे हैं | इसी सोच के चलते हमारे देश में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ती जा रही है | यहां तक की वेटिंग में लंबी लाइन लगी है उनको वृद्धाश्रमों में धकेलने की |
लोग सोशल मिडिया पर फादर्स डे के दिन स्टेटस तो डालेंगे पर पिता के पास बैठने के लिए दो घड़ी का समय उनके पास नहीं है | वह कहीं अकेले बैठे होंगे कोने में | बड़े दुःख की बात है और शर्म की भी कि जिसके बिना हम अधूरे हैं उसी को हम भूलते जा रहे हैं | अपने जीवन की सुख-सुविधा उसके संग नहीं बाँट पा रहे हैं | विदेशों में जहाँ माता-पिता को ओल्ड एज हाउस में शिफ्ट कर देने की परंपरा है, वहाँ तो फादर्स-डे का औचित्य समझ में आता है पर भारत में कहीं इसकी आड़ में लोग अपने दायित्वों से मुंह तो नहीं मोड़ना चाहते ? अपनी जिम्मेदारियों से छुटकारा तो नहीं पाना चाहते ? इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है |
आज जरुरत है आगे बढ़ कर उन्हें सँभालने की, उन्हें सहारा देने की, उनको जिम्मेदारियों से मुक्त करने की | कल उन्होंने हमें संभाला था, आज हमारी बारी है, उनके अकेलेपन को कुछ कम कर पाने की, उनके चेहरे पर खुशी लौटा पाने की, उन्हें वही स्नेह लौटने की जो उन्होंने हमें बचपन में दिया था | उन्हें रू० पैसों की जरूरत नहीं है | उन्हे जरूरत है हमारे थोड़े से समय की जो उनके लिए हो | जिस दिन हम सब ऐसा करने में सफल हों जायेंगे, अपनी व्यस्ततम दिनचर्या से रोज थोडा सा समय उनके साथ बिताएँगे, उनकी परवाह करेंगे, स्वयं उनका ख्याल रखेगें उस दिन से हर दिन होगा -- हेप्पी फादर्स डे


मीना पाठक 

Sunday, May 8, 2016

माँ है तो हम हैं

दीदी माँ ऋतंभरा जी मंच पर आसीन भागवत कथा सुना रही थीं | सभी भक्त तन्मयता से सुन रहे थे | मैं भी टी.वी. के सामने बैठी सुन कर आनन्दित हो रही थी | यशोदा माँ के वात्सल्य का वर्णन हो रहा था | मुख्य कथा को छोड़ दीदी माँ ने भक्तों को एक दूसरी कथा सुनानी आरम्भ कर दी |
एक बार नारद मुनि पृथ्वी पर घूम रहे थे | उन्होंने माताओं को अपने शिशुओं पर ममता उड़ेलते देखा और सोचने लगे कि ये पृथ्वीवासी कितने भाग्यशाली हैं जो इन्हें माँ का सुख मिला है जो स्वर्ग में भी दुर्लभ है | इसी सोच में डूबे वह विष्णु जी के सामने उपस्थित होते हैं |  विष्णुदेव उनकी मन:स्थिति को भापते हुए पूछते हैं | नारद जी उन्हें सब कुछ बताते हैं तब भगवान विष्णु जी कहते हैं कि मातृ सुख तो केवल पृथ्वी वासियों को ही प्राप्त है और अगर किसी भी देवता को माता का वात्सल्य प्राप्त करना हो तो उसे पृथ्वी पर मनुष्य रूप में जन्म लेना होगा तभी यह संभव है | शायद इसी लिए भगवान ने धरती पर कई बार अवतार लिया है |
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस माँ के वात्सल्य के लिए देवताओं को भी मानव रूप में धरती पर अवतरित होना पड़ा उस माँ के लिए हम कोई एक दिन (डे) कैसे निर्धारित कर सकते हैं |
पूतना के विष लगे स्तनों का पान करने के कारण भगवान कृष्ण ने पूतना को माँ कहा और उसे स-सम्मान स्वर्ग में स्थान दिया |
माता कैकयी के कारण राम ने सहर्ष चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार कर लिया पर माता कैकयी को उन्होंने अपनी माता से बढ़ कर सम्मान दिया |
हम उसी राम और कृष्ण की संतान हैं जिन्होंने कहा है कि
माँ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है, माँ प्रकृति है, माँ देवी है, माँ अखिल सृष्टि की संचालक है, पालक है | माँ के बिना हमारा कोई आस्तित्व नहीं | हमारे ऋषि-मुनियों ने मातृदेवो भव कहा है | हमें बचपन से संस्कार भी यही मिला है कि सुबह आँख खुलते ही सबसे पहले धरती को स्पर्श कर माथे से लगाना चाहिए फिर निज जननी के चरण स्पर्श कर दिन की शुरुआत करनी चाहिए |
भारतीय संस्कृति में माँ के लिए वर्ष में एक दिन नहीं होता बल्कि यहाँ तो माँ के आशीर्वाद के बिना कोई दिन, कोई त्यौहार संभव ही नहीं है फिर माँ के लिए हम किसी एक दिन को त्यौहार की तरह कैसे मना सकते हैं ? माँ तो हमारी रगो में प्राण वायु बन कर प्रवाहित होती है | माँ है तो हम हैं, हमारा अस्तित्व है |
हमारी भारतीय संस्कृति की परम्परा तो यही है; पर जब से हमारी भारतीय संस्कृति में पाश्चात्य संस्कृति ने सेंध लगाई है तब से ना जाने कितने
दिन (डे) त्यौहार बन कर हमारी जिंदगी का हिस्सा बनते जा रहे हैं | विदेशी संस्कृति को अपनाते लोग अपनी खुद की सभ्यता और संस्कृति को भूलते जा रहे हैं |
वर्ष में किसी एक दिन माँ को याद कर लेना, उनके प्रति आभार प्रकट कर उनको तोहफा दे कर अपने कर्तव्यों से इति-श्री कर लेना विदेशों की परम्परा होगी हमारी नहीं; पर आज तो विदेशी रंग में ही हम रचते-बसते जा रहे हैं | विदेशों की व्यस्ततम जिंदगी में शायद इन रिश्तों के लिए समय नहीं मिलता होगा तभी उन लोगो ने इन
दिनों (डे) का चलन आरम्भ किया होगा | आज वही स्थिति हमारे देश में होती जा रही है | पहले हमारा परिवार माता-पिता के बिना पूरा नहीं होता था आज की स्थिति बिलकुल भिन्न है | आज परिवार में माता-पिता के लिए स्थान ही नहीं है | परिवार हम दो हमारे दो तक सीमित हो गया है | हम अपने रीति-रिवाज को छोड़ विदेशी रीति-रिवाज अपनाते जा रहे हैं और जाने-अनजाने यही रीति-रिवाज अपनी अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करते जा रहे हैं |
जो माँ हमारी रगो में प्राण वायु बन कर प्रवाहित होती है उसी माँ के लिए हमारे घरों में स्थान नहीं है | क्यों कि उसके लिए शहर में तमाम वृद्धाश्रम खुल गए हैं | आज हमें माँ की लोरियाँ, माँ की दी हुई सीख, माँ के दिए हुए संस्कार आउट ऑफ फैशन लगते हैं |
हम कहाँ आ गए हैं ? यह सोचना होगा | आधुनिकता कोई बुरी बात नहीं पर अपनी सभ्यता,संस्कृति और परम्परा को त्याग कर जो आधुनिकता मिले वह हमें मंजूर नहीं होना चाहिए | बच्चे अनुकरण करते हैं, इस लिए हम जो अपने बच्चो से अपेक्षा करते हैं पहले वह हमें स्वयं करना होगा | नहीं तो कल हमारा भी स्थान वहीं वृद्धाश्रम में होगा |
माँ हमारी सृष्टा है, माँ हमारी पालन कर्ता है, माँ से ही हमारा आस्तित्व है, माँ है तो हम है | हम भग्यशाली हैं कि हमारे सिर पर माँ का हाथ है | 
माँ के चरणों में हर पल, हर दिन हमारा नमन ! वन्दन !

मीना पाठक


 

Monday, March 28, 2016

जब ना रहूँगी मैं !


ढूंडोगे मुझे
इन कलियों में
पुष्पों की पंखुड़ियों में
जो खिलते ही मुझसे बतियाते हैं
छत पर दाना चुनते
पंक्षियों के कलरव में
जो देखते ही मुझे, आ जाते हैं
भोर के तारे में
जो रोज मेरी बाट जोहता है
और मिल-बतिया कर विदा होता है
प्रभात की पहली किरण में
जिसके स्वागत  में
बाँहें पसारे खड़ी रहती हूँ नित्य
घर के कोनों में

धूल पटी खिड़कियों में
धुँधलाये आईने में
जो मेरी उँगलियों का स्पर्श पाते ही
मुस्कुरा उठते हैं
अंत में ढूंडोगे मुझे !
बेतरतीब आलमारी की किताबों में
मेरी सिसकती, कराहती कहानियों
और गोन्सारी की धधकती आग से
पतुकी में भद्-भदाती गर्म रेत सी
कविताओं में,
जब ना रहूँगीं मैं.... || 

मीना पाठक 

Thursday, December 31, 2015

बहुत याद आओगे तुम

सुनो !
तुम जा रहे हो ना
रोक तो नहीं सकती तुम्हें
मेरे वश में नहीं ये
पर तुम बहुत याद आओगे
क्यों कि
बहुत रुलाया है तुमने
पीड़ा से आहत कर
आँसुओं के सागर में डुबाया है तुमने
याद आओगे जब भी
रिसेगें सारे जख्म
धधकेगी क्रोध की ज्वाला
नफरतों का गुबार लिए अंतर में
बहुत याद आओगे तुम
क्यों कि
घिर गई थी जब
निराशाओं के भँवर में
राह ना सूझ रही थी
कोई इस जग में
अपनों में  बेगानों सी
खो गई थी तम में
तब तुमने संबल दिया
जीने का हौसला
आँखों में आँखें डाल
सामना करने की हिम्मत
अपने हक, सम्मान के लिए
आवाज उठाने की,

विरोध करने की ताकत
अपनेआप को साबित करने
और दुनिया को ये दिखाने की
कि मैं, मैं हूँ
तुम बहुत याद आओगे
क्यों कि
तुमने ही तो मुझको
मुझसे मिलाया है,
दुनिया कितनी खूबसूरत है
ये बताया है
प्रेम करना सिखाया है, खुद से
सच...बहुत याद आओगे तुम  ||
 







नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ
सादर
मीना पाठक

Monday, September 14, 2015

हिन्दी दिवस

हिन्दी दिवस ! आखिर क्यों आवश्यकता पड़ी अपने ही राष्ट्रभाषा को हिन्दी दिवस के रूप में मनाने की ? किसी एक दिन या एक पखवाड़े में हिन्दी का गुणगान कर के, हिन्दी के अध्यापकों को सम्मानित करके और काव्य-गोष्ठियाँ कर के हम अपने कर्तव्य से इतिश्री कर लेते हैं फिर सब भूल कर शामिल हो जाते हैं अंग्रेजी की दौड़ में | दुःख होता है कि जिस देश में लगभग पचास करोड़ लोग हिन्दी समझते और बोलते हैं उस भाषा को आजादी के इतने वर्षों बाद भी पूरी तरह राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला, आज भी वह अंग्रेजी की बौशाखी पर टिकी है | बड़े शर्म और क्षोभ का विषय है | हमारे देश के नेताओं की प्रवृत्ति है, हर एक विषय पर राजनीति करने की, आज इसी का परिणाम है कि अपने ही देश में हिन्दी, अंग्रेजी की बैशाखी पर राष्ट्रभाषा के पद पर दीन-हीन सी आसीन है | किसी भी देश की अपनी भाषा जब राष्ट्रभाषा के पद को सुशोभित करती करती है; उस में उस देश की तरक्की निहित होती है, कोई भी ऐसा गणतंत्र नहीं जो इतने वर्षों तक प्रतीक्षा करे | आइये थोड़ा इतिहास पर एक नजर डालते हैं |
भारत में मुस्लिम साम्राज्य के बाद हिन्दी का विकाश अप्रतिहत गति से हुआ | हिन्दी शासकीय संरक्षण ना मिलने पर भी राष्ट्रीय सम्पदा  की द्योतक बनी | हिन्दू, मुसलमान, आर्य, अनार्य, उतर-दक्षिण, शैव-वैष्णव आदि लोगों ने अपनी मान्यताओं के आधार पर हिन्दी को व्याख्यायित किया | सूफी संत जायसी, कुतुबन, मंझान आदि ने सूफी दर्शन और इस्लाम के स्वरूप को राष्ट्रभाषा हिन्दी में प्रस्तुत किया | कबीर, चैतन्य, नामदेव आदि की रागानुगा भक्ति हिन्दी में उपदेशित हुयी | क्या ये लोग हिन्दी प्रदेशों से थे ? चैतन्य सुदूर पूर्व बंगाल से थे, नामदेव मराठी संत , नरसी मेहता गुजरती बल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य .स्वामी रामानंद दक्षिण भारतीय , विद्द्यापति मैथिली केशव और तुलसी बुन्देली, रहीम और कुतुबन विजातीय थे, किन्तु सबके साहित्य एवं भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा हिन्दी रही | कबीर ने कहा-‘संस्कीरती कूप जल भाषा बहता नीर’ केशवदास की भाषिक क्रांति विशेष उल्लेखनीय है | केशव के हृदय ने स्वीकारा कि –
                  भाषा बोल न जानही, जिनके कुल के दास |
                  तिन्ह भाषा कविता करी, जड़मति केशवदास ||
इतना ही नहीं, वरन् पुनर्जागरण काल में जब अंग्रेजों के द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार हुआ, तो धार्मिक आंदोलन हुए | वे सभी आंदोलन हिन्दी माध्यम से हुए | खड़ी बोली हिन्दी का विकास बाईबल के अनुवादों से प्रारंभ हुआ और उसका साहित्यिक स्वरुप फोर्ट विलियम कालेज कलकत्ता ने किया | इंशाल्लाह खाँ हिन्दी के प्रथम खड़ी बोली प्रयोक्ताओं में से है | इसके अतिरिक्त गुजरात के स्वामी दयानंद और मोहन दास कर्मचन्द गाँधी, बंगाल के राजा राम मोहन राय और केशवचन्द्र सेन,महाराष्ट्र के लोकमान्य तिलक, पंजाब के स्वामी श्रद्धानंद ने हिन्दी को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया | आर्य समाज ने तो ये नियम तक बना दिया – (१)उसके प्रचारको तथा अनुयायियों को हिन्दी में लिखना है और बोलना चाहिए | (२) प्रचार के समस्त कार्य हिन्दी के प्रकाशनों द्वारा कराना चाहिए | (३) शिक्षा संस्थाओं में हिन्दी को उचित स्थान दिलाना चाहिए |
सन् 1885 ई० में राष्ट्र में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रूप में एक चेतना आई और देश में जागरण के लिए देश भी भाषा को आवश्यक समझा गया | इसी काल में पत्रकारिता का विकास हुआ और बंगाल से हिन्दी पत्रों का सर्वप्रथम प्रकाशन प्रारम्भ हुआ | इस काल में सम्पर्क भाषा के महत्व पर विचार करते समय देश के तत्कालीन जननायकों को हिन्दी का नाम याद आया, क्योंकि बहुत पहले से ही यही भाषा सम्पर्क भाषा के रूप में कार्य कर रही थी, ध्यातव्य है कि मुस्लिम और अंग्रेजी शासन की उपेक्षा के बावजूद ये कार्य हिन्दी में इसीलिए हुआ, क्योंकि यही ऐसी सर्वमान्य भाषा थी, जिसका प्रयोग सारे देश में हो रहा था और जिसे सर्वत्र समझा जा सकता था | इसीलिए  1 जुलाई 1928 ई० को यंग इंडिया में महात्मा गाँधी ने लिखा – यदि मैं तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा दिया जाना बंद कर देता | सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषा अपनाने के लिए मजबूर कर देता | जो आनाकानी करते उन्हें बर्खास्त कर देता | मैं पाठ्य पुस्तकें तैयार किये जाने तक इंतजार न करता |
उसके पूर्व लोकमान्य तिलक ने कहा था अभी कितनी भी भाषाएँ भारत में प्रचलित हैं, उनमे हिन्दी सर्वत्र प्रचलित हैं, इसी हिन्दी को भारतवर्ष की एकमात्र भाषा स्वीकार कर ली जाये, तो सहज ही में एकता संपन्न हो सकती है |
नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का मत था –“यदि हम लोगों ने मन से प्रयत्न किया तो वह दिन दूर नहीं, जब भारत स्वाधीन होगा और उसकी राष्ट्रभाषा होगी हिन्दी | किन्तु उसी काल में एक अंग्रेज ने टिप्पणी की थी जो भारतीयता पर व्यंग है –
भारत में जब तक देशभक्ति का जोर है, तभी तक हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाया जा सकता है, उसके बाद इस भाषा के क्षीण होते ही अंग्रेजी पुन: अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करेगी |

15 अगस्त सन् 1947 ई० को भारत स्वाधीन हुआ और देश की बागडोर कांग्रेस नेताओं के हाथ में आई | भारत के सम्प्रभुता सम्पन्न संविधान की 14वीं अनुसूची में क्षेत्रीय बोलियों को स्थान देते हुए घोषित किया गया कि देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा होगी | संविधान के इस निर्णय के साथ सहभाषा के रूप में अंग्रेजी को जोड़ा गया और आगामी 15 वर्षों तक जब तक हिन्दी का व्यापक परिवेश प्रशासनिक दृष्टि से नहीं बन जाता जब तक के लिए अंग्रेजी को सहभाषा बनाया गया और राष्ट्रपति को अधिकार दिया गया कि वह आयोगों का गठन करके भाषा का स्वरुप शासन के योग्य निर्धारित करा देंगे |
संविधान अपनी जगह रहा और दिशाएँ उस अंग्रेज विचारक के प्रवाह में बह गई | नये सत्ताधारियों ने अंग्रेजी को विवादस्पद बना दिया | कोई ऐसा गणतंत्र नहीं जो 15 वर्षों तक प्रतीक्षा करता | इसरायल की स्वतंत्रता के तत्काल बाद हिव्रू को राजभाषा बनाया गया और हिव्रू के माध्यम से इसरायल की प्रगति हुई, ऐसे ही और भी बहुत से देश हैं | कालांतर में हिन्दी को लादने का आरोप लगाया जाने लगा और इसकी आड़ में 1965 में हिन्दी प्रयोग के साथ अंग्रेजी भाषा के चलते रहने की बाध्यता अनिश्चित काल के लिए बढ़ा दी गई | केंद्र शासन ने न केवल केंद्र में, वरन् प्रान्तों से भी यही अनुरोध किया | 26 जनवरी  1965 में अंग्रेजी को अनिश्चितकाल तक के लिए हिन्दी के साथ चलते रहने की सर्वसम्मत स्वीकृति दे दी गई |
यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि हिन्दी का विरोध उन्ही नेताओं ने किया जो स्वतंत्रता से पूर्व हिन्दी के पक्षधर थे | भरत के कितने किसान और मजदूर ऐसे हैं जो अंग्रेजी की शिक्षा माध्यम बनाने में सक्षम हैं और अंग्रेजी बोल लेते हैं | प्रश्न भाषा का नहीं अपनी सत्ता और अस्मिता बनाए रखने की कुचेष्टा में राष्ट्रीय अस्मिता नष्ट करने का है |
राजगोपालाचारी हों, डा० सुनीति कुमार चटर्जी या पं० जवाहर लाल नेहरू ये सभी आजादी से पहले हिन्दी के समर्थक थे पर आजादी के बाद इन्हें अंग्रेजी में ही देश का विकाश नजर आने लगा | नेहरु ने तो अंग्रेजी को ज्ञान-विज्ञान का झरोखा तक कह दिया | शचीन्द्रनाथ बख्शी के शब्दों में
यदि अंग्रजी झरोखा है तो हिन्दी आँख, क्या हम झरोखे को बनाए रखे और अपनी प्यारी आँखों को जो जिस्म का हिस्सा है, फोड़ डालें | वस्तुतः यह एक राजनितिक विवाद है | राष्ट्र भाषा की उपेक्षा राष्ट्रद्रोह और सत्तालोलुपता का प्रतीक है |
इतिहास में जब भी जाती हूँ पढ़ कर दुःख होता है कि अगर भाषा के नाम पर राजनीति नहीं हुयी होती तो आज हमारी राष्ट्रभाषा अंग्रेजी की बैसाखी पर ना खड़ी होती |
आज समस्त विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा में हिन्दी का महत्व स्थापित हो चुका है तथा विश्वभर में हिन्दी का अध्ययन हो रहा है ऐसे में हिन्दी को तिरस्कृत करना एक षणयंत्र  ही लगता है | हिन्दी अपने आप में समर्थ होते हुए भी राजनीतिक विवादों के कारण आज अपने उचित स्थान पर नहीं है |
हिन्दी आगे बढ़ रही है; पर क्या उसकी स्थिति संतोषजनक है ? आज कहीं भी अंग्रेजी ना बोल पाने वाला खुद को हीन समझता है या उसे हीन समझा जाता है | स्कूलों में हन्दी के अध्यापक की तनख्वाह अंग्रेजी के अध्यापक से बहुत कम दी जाती है, ये भेद भाव क्यूँ ? यह किसकी जवाबदेही है ? हिन्दी को बढ़ावा देने के नाम पर करोड़ो रुपये मंत्रालयों को दिए जाते हैं | कहाँ जातें हैं ये रुपये ? अभी भोपाल में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन भी हिन्दी प्रदेशों को आकर्षित नहीं कर पायी | ये निराशाजनक स्थिति क्यूँ ?
हिन्दी को बढ़ाने के लिए सभी को अपना नजरिया बदलना होगा | हिन्दी को कमतर आँकना उसका अपमान है | हमें अपने बच्चों को हिन्दी का महत्व बताना होगा और उसके प्रति सम्मान की भावना जागृत करना होगा | अंग्रेजी को एक विषय के तौर पर पढ़ना बुरी बात नहीं; पर हिन्दी को कमतर आँकना हमें मंजूर नहीं | हिन्दी में बोलना शर्म की बात नहीं, किसी विजातीय भाषा को सम्मान देना और अपनी भाषा को तिरस्कृत करना शर्म की बात है | इसकी शुरुआत सबसे पहले हमें अपने घर से ही करनी होगी | गुड मोर्निंग से नहीं प्रणाम से दिन का आरम्भ करना होगा | भाषा माँ सरस्वती का मूर्त रूप है इस लिए अपने बच्चों में आरम्भ से ही इसका सम्मान और अराधना करने का संस्कार विकसित करना होगा तभी वो बड़े हो कर अपने भाषा का सम्मान करेंगे और एक दिन ऐसा आयेगा अब हिन्दी को किसी बैसाखी की आवश्यकता नहीं होगी और वह अपने आसन पर शान से विराजमान होगी |

हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा
हिन्दी हमारा मान है
हिन्दी से हम हिंदी हैं

देश हिन्दोस्तान है ||

मीना पाठक  

शापित

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