ढूंडोगे मुझे
इन कलियों में
पुष्पों की पंखुड़ियों में
जो खिलते ही मुझसे बतियाते हैं
छत पर दाना चुनते
पंक्षियों के कलरव में
जो देखते ही मुझे, आ जाते हैं
भोर के तारे में
जो रोज मेरी बाट जोहता है
और मिल-बतिया कर विदा होता है
प्रभात की पहली किरण में
जिसके स्वागत में
बाँहें पसारे खड़ी रहती हूँ नित्य
घर के कोनों में
धूल पटी खिड़कियों में
धुँधलाये आईने में
जो मेरी उँगलियों का स्पर्श पाते ही
मुस्कुरा उठते हैं
अंत में ढूंडोगे मुझे !
बेतरतीब आलमारी की किताबों में
मेरी सिसकती, कराहती कहानियों
और गोन्सारी की धधकती आग से
पतुकी में भद्-भदाती गर्म रेत सी
कविताओं में,
जब ना रहूँगीं मैं.... ||
मीना पाठक
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