Thursday, August 7, 2014

भाई-बहन के प्यार का त्यौहार है रक्षाबंधन


सावन (श्रावण) उत्सवों का माह है और इसी श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि को रक्षाबंधन का त्यौहार मनाया जाता है। ये भाई-बहनों के प्रेम को समर्पित त्यौहार है इस दिन बहनें अपने भाई की कलाई पर राखी बाँधती हैं और भाई बहनों की रक्षा का संकल्प लेते हैं पर इस त्यौहार का सम्बन्ध सिर्फ भाई-बहन से ही नहीं है | जो भी हमारी रक्षा करता है या कर सकता है उसे हम राखी बाँधते हैं जैसे अपने पिता, पड़ोसी, हमारे सैनिक भाई और किसी राजनेता को भी राखी बांध सकते हैं | प्रकृति भी हमारी रक्षा करती है इस लिए पेड़ पौधों को भी राखी बाँधने का प्रचलन है ताकि उनकी रक्षा हो सके क्यों कि रक्षा सूत्र में अद्भुत शक्ति होती है ये बात खुद भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत में कही है | राखी का त्यौहार भाई-बहनों को स्नेह की डोर में बाँधने का त्यौहार है जिससे उनके रिश्तों में मिठास बनी रहती है और वो हमेशा इस डोर में बंधे रहते हैं | भाई बचपन से ले कर बुढ़ापे तक बहनों की रक्षा करते हैं और बहनें उनकी रक्षा के लिए उनकी कलाई पर रक्षासूत्र बांधतीं हैं | कहीं-कहीं पुरोहित भी अपने यजमान को उनकी उन्नति के लिए रक्षासूत्र बांधते है और यजमान उन्हें सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देते हैं | ये त्यौहार हमारे जीवन में मधुरता लाते हैं और ये हमारी सांस्कृतिक धरोहर भी हैं | इस त्यौहार को श्रावणी भी कहते हैं |
इस दिन सुबह बहनें स्नान करके थाली में रोली, अक्षत, कुंमकुंम और रंग-बिरंगी राखी रख कर दीपक जला कर पूजा करती हैं फिर पहले भगवान को राखी बाँध कर फिर अपने-अपने भाइयों के माथे पर रोली का तिलक करती हैं और दाहिनी कलाई पर राखी बाँधते हुए ये मन्त्र बोलती हैं |

येन बद्धो बलि: राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥

रक्षाबंधन के बारे में अनेकों पौराणिक और ऐतिहासिक कथाएं हैं।

रक्षाबन्धन कब प्रारम्भ हुआ इसके बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं है पर पौराणिक कथाओं के अनुसार सबसे पहले इन्द्र की पत्नी ने देवराज इन्द्र को देवासुर संग्राम में असुरों पर विजय पाने के लिए रक्षा सूत्र बंधा था। इस सूत्र की शक्ति से देवराज की युद्ध में विजय हुयी थी ।
पुराणों के एक और कथा के अनुसार बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। विष्णु जी के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी ने नारद जी से उन्हें वापस लाने का उपाय पूछा, नारद जी ने उन्हें उपाय बताया तब नारद जी के कहेनुसार लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उन्हे राखी बांध कर अपना भाई बनाया और भगवान जी को अपने साथ ले आयीं। उस दिन भी श्रावण मास की पूर्णिमा थी। 
द्वापर में शिशुपाल के वध के समय जब सुदर्शन चक्र से श्री कृष्ण की उंगली कट गई तब द्रौपदी ने अपना आंचल फाड़कर उनकी उंगली पर बांध दिया था । उस दिन सावन की पूर्णिमा थी तब भगवान कृष्ण ने द्रौपदी को उनकी रक्षा का वचन दिया था और चीरहरण के समय उन्होंने अपना वचन निभाया था |
महाभारत में युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण के कहने पर अपनी सेना की रक्षा हेतु पूरी सेना को रक्षासूत्र बांधा था
| कुन्ती द्वारा अभिमन्यू की रक्षा हेतु उसे राखी बाँधने का उल्लेख भी मिलता है |
इतिहास उठा कर देखें तो उसमे भी राजपूत रानी कर्मावती की कहानी है। जब रानी ने अपने राज्य की रक्षा के लिए हुमायूं को राखी भेजी तब हुमायूं ने राजपूत रानी को बहन मानकर उनके राज्य को शत्रु से बचाया था ।
सिकंदर की पत्नी ने भी सिकंदर के हिन्दू शत्रु की कलाई में राखी बाँध कर सिकंदर के जीवन दान का वचन लिया था |
राखी प्रेम और सौहार्द का त्यौहार है | इस रक्षाबंधन पर सभी भाई ये संकल्प करें कि वो अपनी बहनों के साथ-साथ दूसरों की बहनों के सम्मान की भी रक्षा करेंगे और उनका अपमान ना करेंगे ना होने देंगे बहनों के लिए इससे बड़ा कोई उपहार नही  होगा |


सभी को रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ |

मीना पाठक

(चित्र साभार गूगल )

Wednesday, August 6, 2014

मुक्तक


१-
जब भी ये सावन आता है
पिया की याद दे जाता है
जब से गये परदेश पिया
बैरी मधुमास न भाता है  ||
२-
कोमल दिल मुझसा पाओगे फिर कहाँ
जख्मों पर नमक छिड़क, जाओगे फिर कहाँ
जिंदा हूँ साँसों की गिनती खत्म होने तक
सुलग कर राख हो जाऊँगी जलाओगे फिर कहाँ ||

मीना पाठक 

Saturday, August 2, 2014

भगवान शिव को प्रिय है सावन



हिन्दू पंचांग के बारह मासों में श्रावण (सावन) मास भगवान शिव को सर्वाधिक प्रिय है | इस माह को वर्षा ऋतु भी कहते हैं | भगवान शिव को चंद्रमा बहुत प्रिय हैं इसी लिए उन्होंने चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण किया है जिसके कारण वह चन्द्रशेखर कहलाये | चन्द्रमा जल तत्व का ग्रह है इसी लिए इस माह में जल की अधिकता होती है |
सावन मास भगवान शिव को विशेष प्रिय है | इस लिए इस मास में शिव की पूजा अर्चना का विशेष महत्व और विधान है जिसे शिव भक्त बड़ी श्रद्धा से करते हैं तब आशुतोष शिवशंकर प्रशन्न हो कर मनोवांछित फल देते है |
सावन भगवान शिव को इतना प्रिय क्यों है ? इसके बारे में एक पौराणिक कथा में कहा गया है कि सती के देहत्याग करने के पश्चात जब आदिशक्ति ने अपने दूसरे जन्म में पार्वती के रूप में पर्वतराज हिमालय के घर में जन्म लिया तब उन्होंने अपने युवावस्था में इसी माह में निराहार रहकर कठोर तपस्या कर के भगवान शिव को प्रशन्न किया और उन्हें पति रूप में पाने का वरदान प्राप्त किया | सावन माह शिव और पार्वती के मिलन का माह है कहते हैं तभी से सावन मास शिव को अत्यधिक प्रिय हो गया | इसके अलावा भी और कई कारण है |
कहते हैं कि भगवान शिव इस मास पृथ्वी पर अपनी ससुराल आये थे तब उनका स्वागत आर्घ्य और जलाभिषेक से किया गया था इसी लिए ये महीना शिव को प्रिय है और पृथ्वीवासियों को उनकी कृपा पाने का मास भी है |
एक और कथा के अनुसार जब समुद्रमंथन से विष निकला था तब सम्पूर्ण श्रृष्टि की रक्षा हेतु भगवान शिव ने वो विष अपने कंठ में धारण कर लिया था उस विष के प्रभाव से उन्हें मूर्च्छा आ गई तब ब्रह्मा जी के कहने पर सभी देवताओं ने उन पर जलाभिषेक किया | कहते हैं तभी से भगवान शिव का जलाभिषेक होने लगा | यह अद्भुत घटना भी सावन मास में घटित हुआ इस लिए भी सावन मास शिव को प्रिय है | सर्प आशुतोष शिव के प्रिय आभूषण हैं अत: नागपंचमी का पर्व भी इसी महीने में मनाया जाता है |
सावन मास के प्रधान देवता भगवान शिव हैं | यही कारण है कि इस महीने शिव की पूजा का कई गुना फल प्राप्त होता है | इन्ही सब कारणों से माना जाता है कि भगवान शिव को सावन मास सबसे प्रिय है |
इस महीने कथा,प्रवचन,सत्संग सुनने का विशेष महत्व है |
 सावन में सोमवार व्रत अत्यधिक फल देने वाला होता है | शिवशंकर बहुत भोले हैं और जल उन्हें बहुत प्रिय है वो मात्र जलाभिषेक से ही प्रशन्न हो जाते हैं | प्रेम पूर्वक शिवपार्वती की पूजा आरती से आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है |

`
ऊं नमः शिवाय

मीना पाठक
 

Friday, July 18, 2014

गाओ कजरी सखी आयो मधुमास



सावन मास आते ही वर्षा से धरा सिंचित हो कर अपने गर्भ में छुपे बीजों को अंकुरित कर देती है और पूरी धरा हरित हो जाती है | कोयल मीठे सुर में गाने लगती है, पपीहा पीहू करता है और मोर नाच उठते है | स्त्रियाँ लहरिया चुनरी, हथेलियों में मेहदी, कलाईयों में हरी चूड़ियाँ सजाने लगती हैं | ऐसे सुन्दर मधुमास का असर साहित्य पर ना पड़े ये कैसे हो सकता है | साहित्य पर भी हरियाली छा जाती है | साहित्यकारों की कलम चल पड़ती है | नीम के पेडों पर झूले पड़ जाते हैं और सावन में नैहर आई हुई सखियाँ एक दूसरे से ठिठोली करती, एक दूसरे का हाल पूछतीं, कजरी गातीं झूला झूलती हैं |
ऐसे ही एक दृश्य में नीम के पेड़ पर झूला पड़ गया है और सभी सखियाँ चुहल करती हुई झूला झूल रहीं हैं | दो सखियाँ  पींगे मारने के लिए रस्सी पकड़ कर पाटे पर खड़ी हो जाती हैं और दो सखियाँ पाटे पर बैठ जाती हैं | सखियाँ पींगे मारने लगती हैं और झूला धीरे-धीरे ऊपर नीचे होने लगता है | सब सखियाँ एक दूसरे से मिल कर खुशी से खिल उठी हैं पर एक सखी जो झूले पर दूसरी सखी के साथ बैठी है, उदास है | पास बैठी सखी उससे कहती है कि

गाओ कजरी सखी आयो मधुमास
पड़ गये झूले डाल-डाल पर
आयीं गुइयाँ सब खास
गाओ कजरी सखी आयो मधुमास ||
तब उदास सखी अपनी आँखों में जल भर कर कहती है कि
पी-घर छोड़ के नैहर आई
दिल पर ले कर जख्म हजार
क्या गाऊँ सखी भाये ना मधुमास ||
वहाँ पर खड़ी अपनी सभी सखियों के पाँवो में आलता, हथेलियों में रची मेहदी और कलाइयों में भरी-भरी हरी चूड़ियाँ देख कर वह कहती है कि --
हरी चूड़ियाँ मन ना भाये
आलता, महावर मुंह बिराए
कैसे रचाऊँ मेहदी,जख्मी मेरे हाथ
कैसे गाऊँ सखी भाये ना मधुमास ||
उसे उदास देख कर सभी सखियाँ उदास हो जाती हैं | झूला रोक दिया जाता है वो फिर से अपनी वेदना सखियों से कहती है --
साथी थे जो जीवन पथ के
बोये शूल हर इक पग पे
सात वचन जो लिए थे हमने
टूटे जाने कितनी बार
क्या गाऊँ सखी भाये ना मधुमास ||
उसकी व्यथा सुन् कर सभी सखियाँ व्यथित हो जाती हैं क्यों कि वो तो यही सोच रहीं थीं कि उसकी सखी ससुराल में अपने पति के साथ बहुत खुश है | वो अपने आँसू पोंछते हुए अपने दिल का दर्द अपनी सखियों से बयान करती है --
अब ना भाये बिंदिया गजरा
नाक में लौंग आँख में कजरा
ना चुनरी लहरियादार
क्या गाऊँ सखी भाये ना मधुमास ||
जो बातें वो किसी को नही बता पा रही थी अपनी प्रिय सखियों को बता कर अपना मन हल्का कर रही है सखियाँ भी उसकी बात सुन् और समझ रहीं हैं वो भी अपनी सखी को इस हाल में देख कर दुखी हैं, उन सब की आँखों से झर-झर आँसू बह रहे हैं | बिलखते हुए उदास सखी फिर से कहती है--
व्यर्थ गया ये जीवन सारा
जीत कर भी सब कुछ हारा
पथिक हूँ अब पथ पे अकेली
छोड़ दिया हर इक ने साथ
कैसे गाऊँ सखी भाये ना मधुमास ||
सभी सखियों ने अपने आँसू पोंछे फिर अपनी बिलखती सखी के आँसू पोंछ कर उसे गले लगा हौसला देते हुए बोलीं --
सुन् री सखी, नहीं तू अकेली
जीवन पथ पर संग हम सहेली
आँसू ना अब तू ढरका
हाथ बढ़े सबके इक साथ
गाओ कजरी सखी आयो मधुमास ||
जो जीवन से निराश हो चुकी थी अपनी सखियों का स्नेह भरा स्पर्श पा कर उसे जीने का हौसला मिलता है, मन का मवाद आँसूओं के साथ बह गया | सखियाँ फिर से झूले को पींगे मार कर झूलाती हैं और सभी सखियाँ मिल कर गाती हैं --

गाओ कजरी सखी आयो मधुमास ||


मीना पाठक
 

Sunday, June 22, 2014

चलो एक वृक्ष लगाएं !


चलो एक वृक्ष लगाएं
करें पुण्य का काम
जो दे हम सब को
जीवन भर आराम
चलो एक वृक्ष लगाएं |

धरती माँ का गहना है ये
है ये उनका रूप श्रृंगार
पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा
देता हमको जीवन दान
चलो एक वृक्ष लगाएं |

बरगद, पीपल, नीम, पाकड़
तुलसी, अक्षय, पारिजात
ये सब है उपहार प्रकृति का
मिला है सबको एक समान
चलो एक वृक्ष लगाएं |

जल का संग्रह करना है अब
सोच लें गर हम सब इक बार
वर्षा जल संचित कर के हम
भर लें जल भण्डार अपार
चलो एक वृक्ष लगाएं |

गंगा को मैली कर-कर के
किया है हमने जो अपराध
पुनः उसे स्वक्ष करने का
संकल्प लें, बढ़े हम साथ
चलो एक वृक्ष लगाएं ||

मीना पाठक 


Saturday, June 14, 2014

पापा की कुछ यादे कुछ बातें

·                                 सभी को फादर्स डे पर अपने-अपने पापा के लिए कुछ न कुछ लिखते देख रही हूँ, पढ़ रही हूँ और अपनी आँखों में आँसू भर कर सोच रही हूँ कि मै क्या लिखूँ ? ..११ या १२ साल की उम्र थी तभी पापा इस दुनिया से चले गये | उस समय माँ को ११ महीने के छोटे भाई को गोद में लिए रोते-बिलखने देख मै भी रोई पर समझ नही पायी कि मैंने खुद क्या खो दिया | पापा के अंतिम दर्शन भी मैं नहीं कर पायी थी जिसका जीवन भर अफसोस रहेगा |..जिस दिन पापा इस दुनिया से गये शायद उसी दिन से मुझमें आत्मविश्वास की कमी हो गई जो आज तक है | आखिरी के दो वर्ष पापा के साथ रही | माँ बताती हैं कि पापा पर अपने छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी थी इसीलिए वो माँ के साथ हम सब को गाँव में ही रखते थे | जब तीनों बुआ की शादी हो गई और छोटे चाचा की नौकरी पापा के प्रयासों से लग गई तब पापा ने माँ को अपने पास बुलाया | होश संभालने के बाद कुल दो वर्ष पापा के सानिध्य में रही हूँ | पापा कानपुर आर्डिनेन्स में कार्यरत थे | रोज सुबह सायकिल से जाते हुए देखती और शाम को आते हुए, रात की ड्यूटी भी लग जाती थी अक्सर | माँ जब अंगीठी जलाने के लिए गोले बनाती तब माँ को धूप से बचाने के लिए पापा को छाता ले कर खड़े होते हुए देखा है| जब पापड़ बनाती तब भी पापा छाता ले कर खड़े हो जाते| माँ की किसी डिमांड पर स्नेह से समझाते हुए देखा है| कुल दो जोड़ी कपड़े, पैरों में साधारण सी चप्पल| पर, यहाँ से ले कर गाँव तक सभी का ध्यान रखते | कुल वही दो वर्ष की यादें संजोये रखती हूँ | ऐसा नही है कि आज फादर्स डे है इसलिए पापा को याद कर रही हूँ| पापा की याद हर उस समय आती है जब किसी बच्ची को अपने पापा की उंगुली थामे जाते देखती हूँ| जब भी मुझे हल्की सी भी ठोकर लगती है या जब भी मुझे किसी मजबूत सहारे की जरुरत होती है तब पापा और बस् पापा ही याद आते हैं| तब सोचने लगती हूँ कि शायद इसीलिए पापा को सभी बरगद का पेड़ कहते हैं | पापा का मतलब मैं खुद’| पर जब पापा ही नही हैं तो मैकहाँ हूँ..जैसे पेड़ से टूटा हुआ पत्ता जिसे हवा का हल्का सा झोंका भी एक जगह से उठा कर दूसरी जगह पटक देता है| पत्ता चोट से कराहता तो है पर उसे वो पेड़ नही मिलता जो सहारा दे सके, सम्भाल सके| आखिर में वो पीला पड़ने लगता है और एक दिन सूख जाता है| फिर या तो उसे कोई पैरों तले कुचल कर मिट्टी में मिला देता है या चूल्हे में झोंक कर जला देता है | पापा की तस्वीर है मेरे पास| पर मैं कभी उस तस्वीर को निगाह भर नहीं देख पाती हूँ| आँखे आंसुओं से लबालब हो जातीं है और तस्वीर धुंधली हो जाती है...और क्या-क्या लिखूँ....Pc की स्क्रीन बार-बार धुँधली हो जा रही है | आप फादर्स डे पर अपने पापा से बस इतना ही कहना चाहूँगी कि :- पापा आप जहाँ भी हों खुश रहिएगा| यहाँ सब ठीक है| आप की कमी बहुत खलती है| जीवन में सब कुछ है पर आप की रिक्तता कभी भर नही पायी और न ही कभी भरेगी | बहुत याद करती हूँ| आप को ढूंढती हूँ पर पता है आप कभी नही मिलेंगे | और ज्यादा क्या लिखूँ आप जहाँ भी हैं वहीं से सब देख रहे हैं.. कुछ छुपा नही आप से ...एक इच्छा जो आख़िरी इच्छा भी है, जो कभी पूरी नही होगी ये भी जानती हूँ पर फिर भी आप से कहूँगी...बस एक बार, बस एक बार अपने सीने से मुझे लगा लीजिए बस...तरस रही हूँ आप के स्नेह को...आप के स्नेह भरे स्पर्श को...फिर मेरे सारे जख्म भर जायेगे ..पापा...बस एक बार......................|” आप की लाडली
मीना धर


Wednesday, June 11, 2014

मेरे लाल भूल ना जाना ये बात !!

मेरे बच्चे !!
खुश रहो तुम हरदम 
आये न कभी तुम्हारे 
जीवन में कोई गम 
हो माँ शारदे की अनुकम्पा
भरपूर हो स्वास्थ, संपदा
मरे बच्चे !!
याद रखना हमेशा
जीवन में एक अच्छा इंसान बनना
साथ तुम्हारे हो जो
करना उसका आदर
बहे न कभी तुम्हारे कारण
उसकी आँख का काजल
करना न कभी तुम
प्रकृति का दोहन
लेना उससे उतना ही
जितनी हो जरुरत
अंत में है मेरा आशीर्वाद इतना
घर-परिवार, समाज, राष्ट्र
हर जगह हो तुम्हारा नाम ऊँचा
मेरे लाल !!
बढ़ते हुए निरंतर आगे
भूल न जाना ये बात
कि, पुराने वाले घर में
रहती है तुम्हारी माँ !!

(बेटे यश के जन्मदिवस पर कुछ पंक्तियाँ)

Friday, June 6, 2014

नदी


वो नदी जो गिरि
कन्दराओं से निकल
पत्थरों के बीच से
बनाती राह

कितनो की मैल धोते
कितने शव आँचल मे लपेटे
अन्दर कोलाहल समेटे
अपने पथ पर,

कोई पत्थर मार
सीना चिर देता 
कोई भारी चप्पुओं से
छाती पर करता प्रहार
लगातार,

सब सहती हुई
राह दिखाती राही को
तृप्त करती तृषा सब की
अग्रसर रहती अनवरत
तब तक, जब तक
खो न दे 
आस्तित्व |

Wednesday, May 21, 2014

धरती की गुहार अम्बर से


प्यासी धरती आस लगाये देख रही अम्बर को |
दहक रही हूँ सूर्य ताप से शीतल कर दो मुझको ||

पात-पात सब सूख गये हैं, सूख गया है सब जलकल
मेरी गोदी जो खेल रहे थे नदियाँ जलाशय, पेड़ पल्लव
पशु पक्षी सब भूखे प्यासे हो गये हैं जर्जर
भटक रहे दर-दर वो, दूँ मै दोष बताओ किसको
प्यासी धरती आस लगाए देख रही अम्बर को |

इक की गलती भुगत रहे हैं, बाकी सब बे-कल बे-हाल
इक-इक कर सब वृक्ष काट कर बना लिया महल अपना
छेद-छेद कर मेरा सीना बहा रहे हैं निर्मल जल
आहत हो कर इस पीड़ा से देख रही हूँ तुम को
प्यासी धरती आस लगाए देख रही अम्बर को |

सुन कर मेरी विनती अब तो, नेह अपना छलकाओ तुम
गोद में मेरी बिलख रहे जो उनकी प्यास बुझाओ तुम
संतति कई होते इक माँ के पर माँ तो इक होती है
एक करे गलती तो क्या देती है सजा सबको ?
प्यासी धरती आस लगाए देख रही अम्बर को
|

जो निरीह,आश्रित हैं जो, रहते हैं मुझ पर निर्भर
मेरा आँचल हरा भरा हो तब ही भरता उनका उदर
तुम तो हो प्रियतम मेरे, तकती रहती हूँ हर पल
अब जिद्द छोड़ो इक की खातिर दण्ड न दो सबको
प्यासे धरती आस लगाए देख रही अम्बर को
|

झड़ी लगा कर वर्षा की सिंचित कर दो मेरा दामन
प्रेम की बूंदों से छू कर हर्षित कर दो मेरा तनमन
चहके पंक्षी, मचले नदियाँ, ओढूं फिर से धानी चुनर 
बीत गए हैं बरस कई किये हुए आलिंगन तुमको
प्यासी धरती आस लगाए देख रही अम्बर को ||


सोचा न था

सोचा न था मंजर यूँ बदल जायेंगे
आसमां से ज़मी पर उतर आएँगे,
चलते थे जो फूलों भरी राह पर
पाँव वो लहु-लूहान हो जाएँगे
सोचा न था मंजर यूँ बदल जायेंगे |

महकता था दामन जो इत्र की सुगंध से
दुर्गन्ध में पसीने की बदल जाएँगे
रहते थे जो रौशनी की चकाचौंध में
यूँ अंधेरों में मुंह अपना छुपाएंगे
सोचा न था मंजर यूँ बदल जायेंगे  |

आँचल में छुप-छुप किलकारियां भरते थे जो
अब सीना तान दिखाएँगे
कहा करते थे आने ना देंगे आँसू कभी
वही आँखों में समंदर भर जाएँगे
सोचा न था मंजर यूँ बदल जाएँगे |

दौड़ कर लग जाते थे कभी जो सीने से
मुंह फेर कर अब चले जाएँगे,
भरोसे की चादर ओढ़, चैन से सोते थे बेखबर हम
चादर वो खींच कर ले जाएँगे
सोचा न था मंजर यूँ बदल जाएँगे ||
 

Thursday, May 1, 2014

हे स्त्री !!

 उठो हे स्त्री !
पोंछ लो अपने अश्रु 
कमजोर नही तुम 
जननी हो श्रृष्टि की 
प्रकृति और दुर्गा भी 
काली बन हुंकार भरो,
नाश करो!
उन महिसासुरों का 
गर्भ में मिटाते हैं  
जो आस्तित्व तुम्हारा,
संहार करो उनका जो 
करते हैं दामन तुम्हारा 
तार-तार,
करो प्रहार उन पर 
झोंक देते हैं जो
तुम्हें जिन्दा ही 
दहेज की ज्वाला में,
उठो जागो !
जो अब भी ना जागी 
तो मिटा दी जाओगी और 
सदैव के लिए इतिहास 
बन कर रह जाओगी ||

Tuesday, April 29, 2014

कल्पवास

 
आज कल्पवास के आखरी दिन भी वो रोज की तरह पेड़ के नीचे बैठ चारो तरफ नजरें घुमा-घुमा कर किसी को ढूंड रही है जैसे किसी के आने की प्रतीक्षा हो उसे, पूरा दिन निकल गया शाम होने को है, सूर्य की प्रखर किरणें मद्धम पड़ चुकी हैं, पंक्षी अपने-अपने घोसलों में पहुँच गये हैं, बस् कुछ देर में ही दिन पूरी तरह रात्रि के आँचल में समा जाएगा पर अभी तक वो नही दिखा जिसका बर्षों से वो प्रतीक्षा कर रही है |
वर्षों पहले इसी कुम्भ में कल्पवास के लिए छोड़ गया था ये कह कर की कल्पवास समाप्त होने पर आ के ले जाऊँगा पर आज भी नही आया..शायद अगले कल्पवास में उसे माँ की याद आ जाये..पर तब तक शायद मै ही ना रहूँ कहते हुए उसकी आवाज काँप गई अपनी झुकी हुयी कमर के साथ किसी तरह अपनी लाठी के सहारे चलती हुई रात्रि के अंधेरे में विलीन हो गई |

मीना पाठक

Friday, April 11, 2014

उत्तर दो कान्हा !

सुन कर द्रोपदी की चित्कार
कलेजा धरती का फटा क्यों नहीं
देख उसके आँसुओं की धार
अंगारे आसमां ने उगले क्यों नहीं
चुप क्यों थे विदुर व भीष्म
नेत्रहीन तो घृतराष्ट्र थे
द्रोण ने नेत्र क्यों बंद कर लिए
नजरें क्यों चुरा लिए पाँचों पांडवों ने
कहाँ था अर्जुन का गांडीव
बल कहाँ था महाबली भीम का
क्या कोई वस्तु थी द्रोपदी
जिसे दाँव पर लगा दिया
ये कौन सा धर्म था धर्मराज ?

कहाँ थे कृष्ण,
वो तो थी सखी तुम्हारी
स्पर्श करने से पहले ही
भष्म क्यों नही कर दिया
हाथ बढ़ाने से पहले ही
सुदर्शन क्यों नही चला दिया ?

हे कृष्ण !
प्रतीक्षा क्यों करते रहे ?
तुम तो अन्तर्यामी थे,
सब के साथ तुम भी
मूकदर्शक क्यों बने रहे ?
क्या दोष था यज्ञसेनी का,
मात्र स्त्री होना ही ना ??

एक स्त्री को वस्तुमात्र
क्यों बना दिया मुरलीधर ?
जिसका कोई भी केश खिंच ले,
वस्त्र खिंच ले, लगा दे दाँव
बना दिया क्यूँ
इतना विवश और लाचार
चुप क्यों हो मधुसूदन,
उत्तर दो !
ये प्रश्न मुझको बेध रहे हैं
अंतर्मन को छेद रहे हैं
इस वेदना का निदान क्या 
उत्तर दो कान्हा !! 

Thursday, April 10, 2014

एक दूसरे के प्रति त्याग और समर्पण ही प्रेम

एक स्त्री का जब जन्म होता है तभी से उसके लालन पालन और संस्कारों में स्त्रीयोचित गुण डाले जाने लगते हैं | जैसे-जैसे वो बड़ी होती है उसके अन्दर वो गुण विकसित होने लगते है | प्रेम, धैर्य, समर्पण, त्याग ये सभी भावनाएं वो किसी के लिए संजोने लगती है और यूँ ही मन ही मन किसी अनजाने अनदेखे राज कुमार के सपने देखने लगती है और उसी अनजाने से मन ही मन प्रेम करने लगती है | किशोरा अवस्था का प्रेम यौवन तक परिपक्व हो जाता है, तभी दस्तक होती है दिल पर और घर में राजकुमार के स्वागत की तैयारी होने लगती है |
गाजे बाजे के साथ वो सपनों का राजकुमार आता है, उसे ब्याह कर ले जाता है जो वर्षों से उससे प्रेम कर रही थी, उसे ले कर अनेकों सपने बुन रही थी | उसे लगता है कि वो जहाँ जा रही हैं किसी स्वर्ग से कम नही, अनेकों सुख-सुविधाएँ बाँहें पसारे उसके स्वागत को खड़े हैं इसी झूठ को सच मान कर वो एक सुखद भविष्य की कामना करती हुई अपने स्वर्ग में प्रवेश कर जाती है | कुछ दिन के दिखावे के बाद कड़वा सच आखिर सामने आ ही जाता है | सच कब तक छुपा रहता और सच जान कर स्त्री आसमान से जमीन पर आ जाती है उसके सारे सपने चकनाचूर हो जाते हैं फिर भी वो राजकुमार से प्रेम करना नही छोड़ती | आँसुओं को आँचल में समेटती वो अपनी तरफ़ से प्रेम समर्पण और त्याग करती हुई आगे बढ़ती रहती है | पर आखिर कब तक ? शरीर की चोट तो सहन हो जाती है पर हृदय की चोट नही सही जाती | आत्मविश्वास को कोई कुचले सहन होता है पर आत्मसम्मान और चरित्र पर उंगुली उठाना सहन नही होता, वो भी अपने सबसे करीबी और प्रिय से | वर्षों से जो स्त्री अपने प्रिय के लम्बी उम्र के लिए निर्जला व्रत करती है, हर मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे मत्था टेकती है, हर समय उसके लिए समर्पित रहती है, उसकी दुनिया सिर्फ और सिर्फ उसी तक होती है | एक लम्बी पारी बिताने के बाद भी उससे वो मन चाहा प्रेम नही मिलता है ना ही सम्मान तो वो बिखर जाती है हद तो तब होती है जब उसके चरित्र पर भी वही उंगुली उठती है जिससे वो खुद चोटिल हो कर भी पट्टी बांधती आई है | तब उसके सब्र का बाँध टूट जाता है और फिर उसका प्रेम नफरत में परिवर्तित होने लगता है, फिर भी उस रिश्ते को जीवन भर ढोती है वो, एक बोझ की तरह |
दूसरी तरफ़ क्या वो पुरुष भी उसे उतना ही प्रेम करता है ? जिसके लिए एक स्त्री ने सब कुछ छोड़ के अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया | वो उसे जीवन भर भोगता रहा, प्रताड़ित करता रहा, अपमानित करता रहा और अपने प्रेम की दुहाई दे कर उसे हर बार वश में करता रहा | क्या एक चिटकी सिन्दूर उसकी मांग में भर देना और सिर्फ उतने के लिए ही उसके पूरे जीवन उसकी आत्मा, सोच,उसकी रोम-रोम तक पर आधिकार कर लेना यही प्रेम है उसका ? क्या किसी का प्रेम जबरजस्ती या अधिकार से पाया जा सकता है ? क्या यही सब एक स्त्री एक पुरुष  के साथ करे तो वो पुरुष ये रिश्ता निभा पायेगा या बोझ की तरह भी ढो पायेगा इस रिश्ते को ? क्या यही प्रेम है एक पुरुष का स्त्री से ? नही, प्रेम उपजता है हृदय की गहराई से और उसी के साथ अपने प्रिय के लिए त्याग और समर्पण भी उपजता है | सच्चा प्रेमी वही है जो अपने प्रिय की खुशियों के लिए समर्पित रहे ना कि सिर्फ छीनना जाने कुछ देना भी जाने | वही सच्चा प्रेम है जो निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे के प्रति किया जाए नही तो प्रेम का धागा एक बार टूट जाए तो लाख कोशिशो के बाद भी दुबारा नही जुड़ता उसमे गाँठ पड़ जाता है और वो गाँठ एक दिन रिश्तों का नासूर बन जाता है, फिर रिश्ते जिए नही जाते ढोए जाते हैं एक बोझ की तरह  | शायद इसी लिए रहीम दास जी ने कहा है -
               रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरेउ चटकाय |
               टूटे से फिर ना जुरै, जुरै गाँठ परि जाय ||


मीना पाठक
कानपुर
उत्तर प्रदेश

Friday, February 14, 2014

खुशियों का तोहफा

आज सुबह पूजा कर के कल्याणी देवी कमरे मे बैठ गयीं | ठण्ड कुछ ज्यादा थी तो कम्बल ओढ़ कर आराम से कमरे मे गूंज रही गायत्री मन्त्र का आनंद ले रही थी | आँखे बंद कर के वो पूरी तरह से गायत्री मन्त्र मे डूब चुकी थीं तभी अचानक खट-खट की आवाज से उन्होंने आँखे खोली | कोई दरवाजा खटखटा रहा था | बहू रसोई मे थी और पतिदेव पूजा कर रहे थे सो उनको ही मन मार कर कम्बल से निकलना पड़ा | अच्छे से खुद को शाल मे लपेटते हुए उन्होंने गेट खोला तो चौंक गईं | एक मुस्कुराता हुआ आदमी सुन्दर सा गुलाब के फूलों का गुलदस्ता लिए खड़ा था | कल्याणी देवी सोचने लगीं अरे ! ये किसने भेजा बड़ी असमंजस की स्थिति मे उन्होंने वो गुलदस्ता ले लिया उसके साथ एक और पैकेट था | वो आदमी सब दे कर चला गया अभी कल्याणी देवी अन्दर भी नही आ पायीं कि फोन बजने लगा, जल्दी से अन्दर आ कर उन्होंने फोन उठा लिया |
धीरे से आवाज आई - हेल्लो ..!!
"हेल्लो..कौन ??" उधर से बहुत धीमी आवाज आई थी सो कल्याणी देवी पहचान नहीं पायीं |
"मम्मी मै हूँ "...!!
"अरे !! तुम ?? तो इतना धीरे धीरे क्यों बोल रहे हो"..?.
"मम्मी सुनिए .. अभी-अभी कुछ मिला आप को"..?
"हाँ..हाँ .. तो ये सब तुमने भेजा है"..?हाँ .. आप ये सब 'उसे' (बहू) दीजिए अभी और हाँ .. फोन का स्पीकर और फ्रंट वाला कैमरा ऑन कर दीजिए जरा मै भी तो उसके चेहरे का रंग देखूँ | अब कल्याणी देवी सब समझ गयीं थीं | वो टीवी पर देख रही थीं ..कई दिनों से कई 'डे' मनाये जा रहे थे तो आज सबसे बड़ा वाला 'डे'.. वैलेंटाइन डे' है उसी का तोहफा भेजा था सुपुत्र जी ने खैर..वो भारी सा गुलदस्ता लिए रसोई मे पहुँच गयीं, बहू ने जैसे ही घूम कर अपनी सासू माँ को देखा..फोन से आवाज आई "हैप्पी वैलेंटाइन डे" बहू चौंक पड़ी सामने ही सुपुत्र जी स्काइप पर मुस्कुरा रहे थे | बहुरानी की खुशी का ठिकाना नही था ..वो खुशी से चीख पड़ी उनकी खुशी देख कर कल्याणी देवी की आँखे भी भीग गई, अब बारी थी पैकेट खोलने की उसमे से एक प्यारा सा कुशन निकला जिस देख कर बहुरानी ने उसे दिल से लगा लिया उस पर उन दोनों की तस्वीर थी और एक चोकलेट का डिब्बा भी |
आज घर प्रेम की मिठास और गुलाब की सुगंध से भर गया है | प्रेम का ये रंग दोनों के जीवन मे यूँ ही बना रहे दिल से आशीर्वाद देते हुए बेटे-बहू को स्काइप पर अकेला छोड़ कर कल्याणी देवी अपने कमरे मे आ गयीं | कुछ सोच कर उनकी आँखों में दो बूँद आँसू आ गये जिसे उन्होंने आँचल से पोंछा और फिर से गायत्री मंत्र सुनने लगीं | बेटे बहू की हँसी की आवाज अब भी आ रही थी |

मीना पाठक

Tuesday, February 11, 2014

दो मुक्तक

भले कुछ भी लिखू लिख के मिटा देती हूँ
इसी जद्दोजहद मे वक्त गँवा देती हूँ
नाराज शब्द हुए मेरी कलम से शायद
हाथ आते ही हर वक्त सदा देती हूँ ||*

मेरे हर शब्द पर, ऊँगली उठाना छोड़ दो  
कलम का दिल बड़ा कोमल, दुखाना छोड़ दो  
मेरे जज़्बात की छत, कांपती है खौफ से 

हिकारत की ज़रा बिजली, गिराना छोड़ दो ||*

Friday, February 7, 2014

वंदना


हे शारदे माँ, हे शारदे माँ
विद्द्या का मुझको भी वरदान दे माँ

करूँ मै भी सेवा तेरी उम्र भर
मुझमे भी ऐसा कोई
भाव दे माँ
हे शारदे माँ , .......

चलूँ मै भी हरदम सत्यपथ पर
कभी भी न मुझसे कोई चूक हो माँ
हे शारदे माँ ,...........

दिखें जो दुखी-दीन आगे मेरे
कुछ सेवा उनकी भी मै कर सकूं माँ
हे शारदे माँ ,...............

जिह्वा जो खोलूँ तू वाँणी मे हो
चले जो कलम तो तू शब्द दे माँ
हे शारदे माँ, .............

सुख,स्वास्थ,शान्ति सभी को मिले
हर इक को ऐसा ही वरदान दे माँ
हे शारदे माँ ,............

मीना पाठक
चित्र-गूगल


Tuesday, January 7, 2014

आप सब का नया साल शुभ हो

मुट्ठी से रेत की तरह
फिसल गया ये साल भी
पिछले साल की तरह,
वही तल्खियाँ, रुसवाइयाँ
आरोप, प्रत्यारोप,बिलबिलाते दिन
लिजलिजाती रातें, दर्द, कराहें
दे गया सौगात में |

सोचा था पिछले साल भी
होगा खुशहाल, बेमिशाल
लाजवाब आने वाला साल
,
भर लूँगी खुशियों से दामन
महकेगा फूलों से घर आँगन
खुले केशों से बूँदें टपकेंगी
दूँगी तुलसी के चौरा में पानी
बन के रहूँगी राजा की रानी |

हो गया फिर से आत्मा का चीरहरण
केश तो खुले पर द्रोपदी की तरह
कराहों, चीखों से भर गया घर आँगन
आपमान की ज्वाला से दहकने लगा दामन
भर गया रगों में नफरत का जहर
हाहाकार कर उठा अंतर्मन, पर
रह गई मन की बात मन में
कह ना सकी किसी से अपनी उलझन |

लो आ गया फिर से नया साल
जागी है फिर से दिल में आस
लाएगा खुशियाँ अपार
मिटेगा मन से संताप
दहकाए न कलुषित शब्दों का ताप
दे ये नया साल खुशियों की सौगात |

हो
, माँ शारदे की अनुकम्पा
बोल उठें शब्द बेशुमार
मेघ घननघन बरसे
कल-कल सरिता बहे
धरती धनी चूनर ओढ़े
फिर,
नाच उठे मन मयूर
शब्द झरें बन कर फूल
गाये पपीहा मंगल गीत
आने वाले साल का
हर दिन हो शुभ !!!

शापित

                           माँ का घर , यानी कि मायका! मायके जाने की खुशी ही अलग होती है। अपने परिवार के साथ-साथ बचपन के दोस्तों के साथ मिलन...