माँ का घर, यानी
कि मायका! मायके जाने की खुशी ही अलग होती है। अपने परिवार के साथ-साथ
बचपन के दोस्तों के साथ मिलने की एक अलग ही अनुभूति। हँसना, खेलना, लड़ना, झगड़ना, सब वही
बचपन की तरह, कुल
मिला कर अपनी जिम्मेदारियों, घर-गृहस्थी के झंझटों से दूर कुछ दिनों के लिए फिर से बचपन
मिल जाता है।
इस वर्ष भी सर्दी की छुट्टियों में जब मायके आयी तब हमेशा की तरह सबसे पहले माँ से निर्मला आंटी के बारे में ही पूछा ली।
“अभी माँ से ठीक से मिली भी नहीं और निर्मला आंटी की याद आ गयी तुझे!“ माँ ने
हँसते हुए उलाहना दिया।
“माँ...!” मैं लड़ियाते हुए उनसे लिपट गयी।
“रहने दे-रहने दे, अब ज्यादा लाड़ मत दिखा।“ माँ ने रूठने का अभिनय किया फिर
बताया कि वे भी बहुत दिनों से उनके घर
नहीं जा पाई थीं। मैं जाने को तैयार हुई तो माँ ने रोक दिया।
“थकी है, कल चली जाना।”
थकान तो
थी ही सो मैं भी कल जाने की सोच कर वहीं दीवान पर लेट गयी।
निर्मला आंटी का घर मेरे घर के पास ही है। माँ और आंटी बहुत अच्छी सखियाँ हैं इस
लिए दोनों घरों में बहुत ही घरेलू सम्बन्ध है। बचपन में एक बार माँ को मियादी
बुखार चढ़ गया था। उसी दौरान मुझे चेचक भी निकल आयी। बुखार के कारण माँ बुरी तरह
कमजोर हो गयी थीं और मुश्किल से कुछ कर पा रही थीं। चेचक के कारण मैं भी ज्वर से
तप रही थी। उस समय पापा सरकारी दौरे पर थे। आंटी को ये सब जैसे ही पता चला, वह
दौड़ी आयीं और इस बात की परवाह किये बगैर कि चेचक छुआछूत का रोग है, उन्होंने मेरी दवा से ले कर पथ्य तक का बहुत
ध्यान रखा। मैं पीड़ा से कराहती तो वे मेरा माथा सहलाने लगतीं, ‘जल्दी ठीक हो
जायेगी बेटा!’ दिलासा देतीं। उसके बाद तो जैसे निर्मला आंटी के रूप में मुझे एक और
माँ मिल गयी थीं।
बचपन में मैं हमेशा आंटी के घर जाने के लिए बहाने तलाशती
रहती थी। आंटी का बड़ा बेटा उमेश और मैं हमउम्र हैं। महेश हमसे दो साल छोटा। हम
तीनों अक्सर खेलते-खेलते लड़ जाते और हंगामा खड़ा कर देते; पर
डाँट हमेशा उमेश को ही पड़ती, उसकी गलती हो या ना हो, क्योंकि मुझे लड़की होने का
विशेषाधिकार प्राप्त होता और महेश छोटे में गिना जाता। वो भी क्या दिन थे!
पता ही नहीं चला कि खेलते-कूदते हम कब बड़े हुए और अपनी-अपनी गृहस्थी की
जिम्मेंदारियों में भी उलझ गए। रक्षाबंधन पर अब भी जब कभी हमसब मिलते हैं तब फिर
से वही हंगामा शुरू हो जाता है। अंतर सिर्फ इतना कि अब आंटी की जगह उनकी पत्नियाँ मेरा
साथ देती हैं; पर ऐसे मौके कम ही मिल पाते हैं। कभी मैं आई तो वे लोग नहीं मिलते और कभी वे
लोग आये तो मैं नहीं आ पाती। आंटी के बारे में सोचते-सोचते न जाने कब आँख लग गई।
*
अगले दिन उनके घर पहुँची तो वे अपने कमरे में लेटी थीं। मुझे देखते ही उनका चेहरा खिल उठा।
"अरे उर्मी बेटा! कब आई ?"
कहते हुए उठ कर अपनी
बाहें पसार दीं आंटी|
"कल
ही आई हूँ आंटी।" उनके गले लग कर बोली मैं।
“घर में सब कैसे हैं? तेरी सासू माँ कैसी हैं ? तुझे अब ज्यादा तंग तो नहीं करतीं न?"
"अरे नहीं आंटी जी! अब तो वे भी आप की तरह ही मुझे बहुत प्रेम करती हैं।”
मैंने हँस कर जवाब दिया। सुन कर वे मुस्कुरा दीं।
"आप की तबीयत को
क्या हो गया ? माँ बता रही थीं कि आप अक्सर बीमार
रहने लगी हैं।"
इस बार मैं गम्भीर थी।
"कुछ
नहीं रे! तेरी माँ तो बस् यूँ ही मेरे लिए परेशान रहती है। तू बता अपने घर परिवार
के बारे में।” आंटी बात टाल दी थीं।
तभी गेट खटका। आंटी जाने को हुयीं पर मैंने उन्हें रोक दिया और स्वयं जा कर गेट
खोल दी। अंकल जी थे। मैंने उन्हें प्रणाम किया, वे भी मुझे देख कर हल्के से मुस्कुराए। मैं फिर से आंटी के पास
आ कर बैठ गई।
“हाउस टैक्स की फ़ाइल कहाँ है ?” तभी एक रूखी, कर्कस आवाज़ कमरे में गूँज गई। आंटी मेरा मुँह देखते हुए कुछ
सोचने लगी थीं। जैसे कुछ याद कर रही हों। कमरे में सन्नाटा पसर गया। थोड़ी ही देर
बाद उस सन्नाटे को रौंदती हुयी उसी आवाज़ के साथ अंकल जी भी प्रकट हो गये।
“सुनाई नहीं दिया क्या ?” उनके चेहरे पर सख्ती थी और आवाज़ तो जैसे
कानों के रास्ते आत्मा तक को झुलसा दे! मुझे अचरज हो रहा था कि अंकल जी मेरी परवाह
किये बगैर आंटी से बदसलूकी से पेश आ रहे थे।
“मुझे
नहीं मालूम कि फ़ाइल कहाँ रखी है!”
उनका इतना कहना था कि अंकल जी फ़ट पड़े, “तुम्हें कुछ नहीं मालूम! क्या करती हो ? रात-दिन
पड़ी रहती हो पर कौन सी चीज कहाँ है? इससे तुम्हें कुछ लेना-देना नहीं।जब इस घर के
प्रति तुम्हारी कोई जिम्मेंदारी ही नहीं है तो यहाँ कर क्या रही हो?” अंकल
जी न जाने क्या-क्या बोले जा रहे थे। आंटी की आँखें धीरे-धीरे पनीली हुयी फिर छलक
पड़ीं। आंटी के आँसू देख मेरा मन भी भीग उठा था। तब तक अंकल जी ने जोर से आलामारी
का दरवाजा खोला और फ़ाइल ढूढना शुरू कर दिया। थोड़ी देर में फ़ाइल मिल गई थी शायद, वे पैर
पटकते हुए चले गये।
आज-कल कुछ
भी याद नहीं रहता। कोई भी चीज कहीं भी रख कर भूल जाती हूँ।” लगा जैसे उनकी आवाज़ जैसे गहरे कुएँ से आ रही
हो। मुझे देखते ही उनके चेहरे पर जो फुलझाड़ियाँ-सी फ़ूटी थीं, अब वहाँ छोभ पसरा था।
“ये तो मुझसे भी हो जाता है आंटी! कई बार चीज़ें रख कर भूल जाती हूँ। इसमें इतना
मायूस होने की कोई बात नहीं है।“ बात बदलने की गरज से मैंने उनसे कहा पर मैं जानती
थी कि अंकल जी के व्यवहार से वे आहत हुयी थीं। अंकल जी अब भी वैसे ही थे, तनिक
नहीं बदले थे। मुझे बहुत बुरा लगा था पर क्या कर सकती थी? थोड़ी देर बाद आंटी से फिर आने को कह कर मैं घर आ गयी।
*
मैंने माँ
को सारी बात बतायी। सुन कर माँ के चेहरे का रंग बदल गया था। “स्त्री को पति अच्छा मिल जाये तो उसका जीवन
सुखमय, नहीं तो नर्क से भी बद्तर! भाई साहब ने उस निर्दोष के साथ कौन-कौन सा
अत्याचार नहीं किया। बच्चे भी नालायक ही निकले। पत्नियों के साथ आराम से रह रहे
हैं पर उन्हें माँ का तनिक भी ख्याल नहीं। पिता के इस कू-कृत्य का विरोध भी नहीं
करते। और भाई साहब...! हुँह ! निर्मला की जगह मैं होती न! तब उन्हें पता चलता; पर ये निर्मला भी जाने किस मिट्टी की बनी है,
चुपचाप सहती रहती है।”
कह कर माँ गुस्से में
दाँत पीसती हुई रसोई में चली गई।
माँ से
कितनी बार सुन चुकी थी मैं कि उन दोनों की गृहस्थी एक साथ ही शुरू हुयी थी; पर दोनों में बहुत अंतर था। माँ-पापा में
कभी लड़ाई नहीं होती और कभी होती भी तो हम दोनों भाई-बहन उनकी लड़ाई के मज़े लेते। ऐसा
लगता जैसे बचपन के दो दोस्त किसी खिलौने के लिए या खेल में हार-जीत को ले कर आपस में
झगड़ रहे हों और थोड़ी देर बाद ही सुलह; पर
आंटी-अंकल जी को मैंने कभी हँसते-बोलते नहीं देखा। अंकल जी तो आंटी से सहूलियत से कभी
बात भी नहीं करते थे! हर समय आदेशात्मक लहज़ा होता उनका। भाषा में अपशब्द, तीखापन, कटाक्ष और व्यंग्य घुला रहता। आंटी तो उनसे
इतना डरती थीं कि अंकल जी के मुँह से आवाज़ निकलते ही हरकत में आ जाती थीं क्योंकि उन्हें
सब काम समय पर चाहिए होता, एक मिनट की भी देरी आंटी की शामत ला देती थी।
बचपन में
जब मैं उनके घर खेलने जाती तो कभी उनके के चेहरे पर तो कभी बाँह, पेट, पीठ पर काला निशान देखती। उस समय मैं इन बातों को समझ नहीं पाती
थी; पर जैसे-जैसे बड़ी होती गई धीरे-धीरे
सब समझ में आने लगा। घर के बाहर दूसरों के लिए अंकल जी का व्यवहार अत्यंत मधुर था।
पर आंटी के साथ उनका सुलूक बहुत बुरा।
पिछली बार
जब मैं कानपुर आई थी तब मुझे आंटी का व्यवहार कुछ बदला हुआ महसूस हुआ था। चीजों पर
गुस्सा उतारना, बात-बात पर झुंझलाना और कुछ कहते-कहते रुक जाना। चेहरे पर अचानक
आयी ढेरों झुर्रियां और अस्त-व्यस्तता! ऐसी तो नहीं थीं वे।
“क्या हुआ आंटी? आप की तबीयत तो ठीक है?”
“मुझे क्या होगा रे! पत्थर की जान है, पिघलने वाली नहीं।“ कहते हुए एक अजीब-सी
हँसी उनके चहरे पर थी।
“कुछ तो है आंटी! प्लीज़ बताइए।“
सुन कर वे कुछ कहते-कहते रुक गयी थीं। उनके चेहरे से लग रहा था जैसे बहुत
कुछ कहना चाह कर भी कुछ कह नहीं पा रही थीं। फिर बोलीं “तू नहीं समझेगी।” उन्हें
क्या पता कि मैं सब समझ रही थी। उस बार वापस जा कर मैंने उमेश को फोन पर कहा था, “आंटी की हालत मुझे कुछ ठीक नहीं लगीं, उनका
ध्यान नहीं रख रहे हो तुम लोग और अंकल जी को तो तुम दोनों मुझसे बेहतर जानते हो।
कुछ कहते क्यूँ नहीं उन्हें?”
“बता मैं क्या करूँ ? कई बार समझा चुका हूँ। अब इस उम्र में पापा
तो सुधरने से रहे, माँ भी घर छोड़ कर मेरे पास नहीं
आयेगीं।” उमेश ने कहा था।
मैं निरुत्तर हो गई थी। तब से अब आई हूँ तो आंटी को बिस्तर पर देख रही हूँ और अंकल
जी तो जैसे कुत्ते की दुम! जो कभी सीधी नहीं होती।
*
“चल उठ चाय पी।” माँ की आवाज सुन कर मैं चौंक कर उठ बैठी।
“क्या सोच रही है?” माँ ने पूछा।
“आंटी के बारे में सोच रही हूँ। अंकल
जी आज तक नहीं सुधरे!”
“क्या कहूँ! सहते-सहते अब वह जर्जर
हो गई है। डरती हूँ, उसके भीतर की घुटन, बेबसी और क्रोध कहीं उसे ही न लील ले।” कहते हुए माँ की आँखें भीग गयीं।
“उसने तो निर्मला का जीवन ही तबाह कर
दिया मैंने कितनी बार कहा कि उस आदमी को उसकी सही जगह दिखा; पर नहीं, वह करवा चौथ पर आरती उतारती रही, तीज
का निर्जला व्रत रखती रही। उसके लिए, जिसने कभी भी उसकी भावनाओं की कद्र नहीं की।
न ही वह सम्मान दिया जो उसे मिलना चाहिए। यहाँ तक कि निर्मला को कभी इंसान तक नहीं
समझा उस आदमी ने।” कह कर माँ अपने आँसू पोंछने लगीं।
आंटी से
मुझे बचपन से अभी तक हमेशा बहुत स्नेह मिला; पर मैं उनके लिए कुछ नहीं कर पा रही थी। बिलकुल अकेली पड़ गई थीं
वे। जीवनभर पत्नी अपने पति से अपनापा चाहती है; पर बच्चों की परवरिश, उनके
भविष्य की चिंता और घर-गृहस्थी की आपा-घापी में वह भागती, दौड़ती,
व्यस्त रहती है लेकिन
उम्र में एक ऐसा भी पड़ाव आता है जब पत्नी अपने पति से दिल की बात करना चाहती है।
तब, जब पति भी न सुने, उसकी भावनाओं को न समझे तो वह सबके होते हुए भी अकेली हो
जाती है और अपनों के बीच अकेलापन बहुत दुखदाई होता है।
मैं जितने
दिन रही, रोज आंटी के घर गयी। वह जरा भी ठीक
रहतीं तो उठ कर काम करना शुरू कर देतीं।
“आंटी आप किसी बहू को बुला क्यों
नहीं लेतीं?” कहा था मैंने एक दिन।
“वे दोनों भी अपने बच्चों की पढ़ाई से
बँधी हैं रे ! छुट्टी में ही आ पाती हैं। उसमें भी उन्हें मायके में रहना ज्यादा सुहाता
है।” कह कर एक उदास हँसी हँस दीं आंटी।
“तो आप ही चली जाइये उनके पास। वहीँ
रहिये अब।”
“मैं?”
प्रश्नवाचक
निगाहों से देखा उन्होंने मेरी तरफ। मैंने भी सिर हिला कर हामी भर दी तब मुस्कुरा
कर बोलीं वे, “फिर ये घर कौन देखेगा ? तेरे अंकल को हर चीज समय से चाहिए, मैं चली गयी तो कौन करेगा ये सब?” एक पल रुक कर फिर बोलीं, “और मुझे कहीं
जाने की इज़ाज़त भी कहाँ है रे!”
कुछ दिनों
बाद मैं वापस शिमला लौट गई और घरेलू जिम्मेंदारियों में ऐसी उलझी कि बहुत समय तक कानपुर
जाने का मौका ही नहीं मिला।
*
समय की
रेत झरती रही। मैं जब भी माँ के पास फ़ोन करती तब आंटी की खोज खबर जरूर लेती और माँ
को भी बोलती कि वे आंटी के पास चली जाया करें। उन्हें अच्छा लगेगा पर माँ को भी कम
ही समय मिलता था। वह और पापा भी अकेले ही रहते थे; पर दोनों एक दूसरे के पूरक थे। इस लिए मुझे माँ की चिंता कभी
नहीं हुयी। मैं जानती थी कि माँ के सिर में दर्द भी हुआ तो पापा उन्हें बिस्तर से
उठने नहीं देंगे। सिर दबाने से ले कर खाना बनाने तक का सारा काम वे स्वयं ही कर
लेगें।
माँ कभी-कभी कहती भी थी, “पिछले जन्म में न जाने कितने पुण्य
किये थे मैंने, जो इन्हें पाया!”
मैं भी
यही मानती हूँ कि पापा जैसा पति ईश्वर सभी को दें ! वे माँ के पति के साथ मित्र और
गुरु भी थे। कभी जब माँ से कोई काम बिगड़ जाता था तो वे कितने स्नेह से उन्हें समझा
दिया करते थे, मैं देखती ही रह जाती थी। कभी-कभी
मैं माँ को बोलती, “मेरे लिए भी पापा जैसा पति क्यों
नहीं ढूँढा ?” तो माँ मुस्कुरा देतीं।
मृदुल बहुत अच्छे हैं पर पापा जैसे नहीं। कभी-कभी उनके भीतर का पुरुषोचित दंभ जाग जाता है लेकिन वह क्षणिक ही होता है; पर अंकल जी को भगवान ने ना जाने किस मिट्टी से बनाया है? जरा भी इंसानियत नहीं। उनके हिसाब से पत्नी एक मशीन थी जिससे वह जब चाहें जैसे चाहें काम लें, उसके उफ्फ़ करने पर उसे प्रताड़ित करें और वह आह भी ना करे! किस्मत के धनी थे कि उन्हें मिली भी थी आंटी जैसी स्त्री जो धरती की तरह सिर्फ सहना ही जानती थीं। कभी विरोध के स्वर नहीं फूटे उनकी ज़ुबान से।
धीरे-धीरे
दो वर्ष बीत गये। सासू माँ की बीमारी और बेटियों के स्कूल के कारण मायके जाने का समय
ही नहीं निकल पाया।
“आज काम खत्म कर के घर फोन करूँगी।” मन में सोच ही रही थी कि अचानक ही फोन की
घंटी बज उठी।
“उर्मी...!” बोलते हुए माँ की आवाज़ काँप रही थी।
“हाँ माँ! क्या हुआ? सब ठीक न?” मैंने घबरा कर पूछा।
“..............”
“हेल्लो! क्या हुआ माँ! कुछ बोलो तो!
चुप क्यूँ हो आप?” मेरा मन अंजानी आशंका से धड़क उठा था।
“उर्मी !”
“हाँ माँ !”
“निर्मला नहीं रही।” और उधर से माँ के सिसकने की आवाज़ आने लगी।
मेरा दिल
धक् से हो गया। मैं वहीं धम्म से बैठ गयी। आँखों से आँसू झरने लगे।
“क्या हुआ बहू? सब ठीक तो है?” मेरी हालत देख कर सासू माँ भी घबरा गयीं।
उनको बताते हुए मेरी रुलाई फूट पड़ी। आंटी के बारे में मैं अक्सर बातें किया करती
थी। घर में सब लोग उनके प्रति मेरे लगाव को जानते थे।
“ईश्वर उन्हें सद्गति दें।” कहते हुए वे मुझे सांत्वना देने लगीं।
आज आंटी की एक-एक बात मुझे याद आ रही थी। उनका प्यार-दुलार, उनका रोना-कराहना, उनके शरीर के काले-नीले निशान...! मेरे लिए सबसे बड़े दुःख की बात
यह थी कि मैं आखिरी बार उनसे मिल भी न पायी।
शाम को मृदुल
घर आये तो उनको मैंने सारी बात बतायी और कानपुर जाने की इच्छा व्यक्त करते हुए अपने
लिए टिकट कराने के लिए बोल दी। माँ-पापा से मिले भी बहुत दिन हो गए थे। मृदुल ने मेरी
अकेले की आने-जाने की टिकट करा दी। क्योंकि न तो
उन्हें इतनी जल्दी छुट्टी मिल सकती थी न बेटियों को।
कानपुर सेंट्रल से पापा के साथ मैं अपने घर न जा कर सीधे आंटी के घर पहुँची। पापा मेरा सामान ले कर घर चले गये। अंकल जी को बाहर तख़त पर बैठे देख कर पहली बार मुझे उनसे घृणा हुई थी। उनको नज़रअंदाज कर मैं अन्दर चली गई। हॉल में बैठे उमेश-महेश पर नज़र पड़ते ही मेरी रुलाई फूट पड़ी। हम तीनों आपस में लिपट कर फूट-फूट कर रो पड़े। उनकी पत्नियों ने ही हम तीनों को सम्भाला तब तक माँ भी आ गयीं। थोड़ी देर के बाद माँ मुझे घर लिवा लायीं। एक तो मैं सफ़र की थकी थी ऊपर से रोने के कारण मेरा सिर दर्द से फ़टा जा रहा था। फ़्रेश हो कर आई तो माँ ने चाय नाश्ता लगा दिया। उसके बाद सिर दर्द की दवा खा कर मैं लेटी तो सो गई। शाम को उठी तब माँ ने फिर से चाय थमा दिया।
“आंटी को क्या हुआ था माँ !”
मेरे पूछने पर माँ की आँखें छलक पड़ीं। अपने पल्लू से आँसू पोंछते हुए वे बताने
लगीं, “उस दिन शाम को मैं ठेले से सब्जी लेने के लिए खड़ी थी तभी सामने से निर्मला
की पड़ोसन निकल रही थी। वह मुझे देख कर रुक गई। उसीने बताया कि कल निर्मला के घर से
तेज़-तेज़ आवाजें आ रही थीं। सुन कर मेरा दिल धड़क उठा था। मैं भागी-भागी गई तो उसकी
हालत देख कर सब समझ गयी। मुझे देख कर वह बिलख कर रो पड़ी थी।” इतना कह कर माँ सिसक पड़ीं, मैं भी अपने आँसुओं को नहीं रोक पायी।
थोड़ी देर
बाद माँ ने फिर से कहना शुरू किया, “उसे
रोता देख कर मैं अपने ऊपर संयम नहीं रख पायी और भाई साहब के पास जा कर विफ़र पड़ी, इस
उम्र में निर्मला पर हाथ उठाते हुए आप को शर्म नहीं आती? आखिर ऐसा क्या कर देती है वह कि हमेंशा आप का हाथ उठ जाता है?”
“इस बार उसने जो ग़लती की है, वह अक्षम्य है, मैंने एक चांटा क्या मार दिया, मुझपर झपट पड़ी। उसने मेरे ऊपर हाथ उठाने की कोशिश की।” वे अकड़ कर बोले।
“हाँ, तो क्या गलत किया उसने? ये जो उसने आज किया न! उसे बहुत पहले करना चाहिए था।” मेरी बात सुन कर वह तिलमिला गये थे।
“आप अपना काम कीजिये, ये मेरे घर का मामला है!” मुझे उनसे किसी अच्छे व्यवहार की उम्मीद तो
थी नहीं, सो वही हुआ।
मैं कुछ और कहती कि निर्मला आ कर मुझे खींच ले गई। मैं बहुत गुस्से में थी सो उसी
पर फट पड़ी, “अगर तूने हाथ उठाया ही था तो इस
जल्लाद का मुँह क्यों नहीं नोच लिया ताकि यह भी मुँह छुपाता फिरता। अरे छोड़ क्यूँ
नहीं देती इस आदमी को! क्यूँ सहती है इतना!” मैं चीख पड़ी थी उसपर।
“उठ, अभी के अभी चल तू मेरे साथ।”
“मुझे मेरे हाल पर छोड़ दे। तू जा यहाँ से।“
“तो मर इसी नर्क में! अरे एक जानवर को भी अगर बार-बार मारा जाये तो वह मारने वाले को सींग दिखता है या रस्सी तुड़ा कर भागने की चेष्टा करता है पर तू तो इंसान है! उसके साथ-साथ तूने भी ख़ुद को प्रताड़ित किया है। समझी! और कुछ गलत नहीं किया तूने। अपने बेटों को बता ये सब। लानत है ऐसे बेटों पर जिनके होते हुए माँ इस तरह से घुट-घुट कर जी रही है। मैं उसे रोता-सिसकता छोड़ कर चली आई। जब उम्मीद के सारे रास्ते बंद हो जाएँ तो इंसान आख़िर कैसे जिये...! काश! मैंने उसका हौसला बढ़ाया होता। उसके जख्मों पर मरहम लगाया होता। मैं उस घटिया, दो कौड़ी के आदमी का गुस्सा उस मासूम पर उतार आयी थी। दूसरे दिन जाने की सोच ही रही थी कि अचानक उसके न रहने की खबर मिली।“ कह कर माँ बिलख-बिलख कर रो पड़ी थीं।
*
आंटी की तेरहवीं को दो दिन हो गये थे। मुझे वापस जाना था। सोचा, एक बार आंटी के घर हो आऊँ, आखिर मैं उन्हीं के लिए तो आई थी। अब उमेश-महेश के प्रति मेरा नज़रिया बदल गया था। माँ कुछ भी सीख दे दे; पर पिता का आचरण बेटों को स्वत: ही मिल जाता है...!
अपने पिता
जैसे ये भी दोहरे व्यक्तित्व के होंगे, मैंने कभी नहीं सोचा था। बाहर दिखाने के
लिए अच्छा व्यवहार और घर में घटिया, बीमार
मानसिकता लिए इन जैसे ना जाने कितने पुरुष होंगे जो घर की स्त्रियों का जीना दूभर
कर रखे होगें। इच्छा तो नहीं हो रही थी; पर
फिर भी एक आख़री बार मैं गयी।
वहाँ पहुँची
तो सब सो रहे थे। जैसे बहुत सारे दायित्वों के बोझ से निज़ात पा गये हों। उमेश की
पत्नी निशा ने गेट खोला और मुझसे हुलस कर मिली फिर मुझे आंटी के कमरे में ले गयी।
हम दोनों उस जगह बिछी चादर पर चुप-चाप बैठे रहे जहाँ लेट कर आंटी ने आख़री साँस ली
थी। कुछ देर तो हम दोनों में कोई बात नहीं हुई पर सामने बिखरा सामान देख कर मैंने
पूछ लिया, “ये सब क्या है?”
“मम्मी के बक्से से निकला है।”
अब मैंने ध्यान से देखा,
कुछ खिलौने, छोटे-छोटे
कपड़े, गहनों के खुले पड़े खाली डिब्बे, बनारसी
साड़ियाँ, जिनकी ज़री अब काली पड़ चुकी थी और उमेश-महेश के बचपन के कुछ फोटोग्राफ
बिखरे पड़े थे। जो शायद इनसब के लिए बेकार थे। तभी मेरी
निगाह साड़ियों के बीच से झाँकती डायरी पर अटक गई। मैं चौंकी। इस बीच निशा मेरे लिए
पानी लेने चली गई। अचानक मन में ख्याल आया कि क्यूँ न डायरी ले लूँ; पर कैसे? मैंने इधर-उधर देखा। मेरे सिवा वहाँ कोई नहीं था। झट से डायरी उठायी
और अपने कमर में खोस कर पल्लू से ढक ली। तभी निशा पानी ले कर आ गई। अब वहाँ बैठना मेरे
लिए एक-एक पल भारी हो रहा था। मैं अज़ीब सी घुटन महसूस कर रही थी। आंटी के न रहने
पर आज ये घर मरघट जैसा लग रहा था। मैंने पानी को हाथ भी नहीं लगाया और उठ कर चल
दी। तभी निशा बोली, “रुकिए न, मैं जगाती हूँ सब को।”
“मेरी ट्रेन का समय हो रहा है; रुक
नहीं पाऊँगी, सोने दो उन्हें।” बोलते हुए मैं निकल आई।
*
मना करने
के बावजूद भी माँ ने मेरे लिए खाने का सामान, कपड़े,
अँचार और भी न जाने
क्या-क्या बाँध दिया था। मैंने चुपचाप डायरी अपने बैग में रख ली। चलते समय माँ से
गले लग कर खूब रोई। माँ से मिलना भी कम ही होता था और आंटी का दर्द तो था ही सो
आँखें खूब बरसीं। चलते-चलते माँ ने हिदायत दी, “रास्ते का कुछ न खाना, मैंने सब कुछ रख दिया है।”
बच्चे
कितने भी बड़े हो जाएँ,
माँ के लिए बच्चे ही
रहते हैं। वो उन्हें सिखाना कभी नहीं छोड़ती। पापा ने ट्रेन में बैठा दिया और
चलते-चलते उन्होंने भी सावधानी बरतने और पहुँचते ही फोन करने को कहा। ट्रेन
धीरे-धीरे रेंगने लगी थी। पापा हाथ हिलाते हुए आँखों से ओझल हो गये और पापा से
बिछड़ते हुए मेरी आँखें फिर छलक पड़ीं।
*
रात हो
चुकी थी। ट्रेन पूरी रफ़्तार से अपने साथ मुझे भी मंजिल की ओर लिए जा रही थी। सभी
यात्री सुख की नींद सो रहे थे। पर मेरे सामने की बर्थ पर एक स्त्री अपने छोटे
बच्चे के साथ जाग रही थी। मेरी आँखों में भी नींद कहाँ थी! आंटी फिर से दिलोदिमाग
पर छा गयी थीं। मैंने डायरी निकाल कर बैग को विंडो के पास हुक्क पर टांग दिया और
सिरहाने का बल्ब जला कर अपनी सीट पर लेट गयी। किसी की डायरी पढ़ना अच्छी बात नहीं
होती और चुराना तो बहुत बुरी बात;
पर इस डायरी को ले कर मेरे
दिल में बहुत उत्सुकता थी। आंटी डायरी लिखती थीं, ये तो मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। मैं धड़कते दिल से डायरी
खोल कर उसके पन्ने पलटने लगी।
वर्षों पहले की कोई तारीख थी। लिखा था, “शायद किसी ने भी मेरे साथ उतना बुरा नहीं किया जितना मैंने अपने साथ किया। दुनिया की सारी यातनाएँ मैंने ही खुद को दीं। हमेंशा सोचती हूँ, क्यों सहती गई एक बीमार मानसिकता को ? क्यों कमजोर पड़ जाती हूँ हर बार ? विरोध करने का साहस क्यों नहीं जुटा पाती हूँ? क्यूँ जिए जा रही हूँ ये तिरस्कार और यातना भरी ज़िंदगी? मुझमें शक्ति होती तो झोंक देती स्वयं को धधकती ज्वाला में। रोज-रोज जलने से अच्छा कि एक बार में ही स्वाहा हो जाती और छुटकारा पा जाती इस शापित जीवन से; पर जीना ही होगा मुझे, अपने बच्चों के लिए। उनके भविष्य के लिए मुझे ये सब सहना ही होगा। उनके बड़े होते ही ये दिन भी बदल जायेंगे।” पढ़ कर मेरा दिल कराह उठा।
ओह्ह ! कितना भरोसा था आंटी को अपने बेटों पर और वही बेटे उनके साथ हो रहे
अत्याचार को अपनी मौन सहमति दे कर पिता को बल दे रहे थे। आंटी की पीड़ा मेरी आँखों
से छलक पड़ी। मैं पन्ने पलटती गई। हर पन्ने पर आंटी की सिसकियाँ, कराह, देह पर लगे चोटों का व्यौरा और अंकल जी की बेशर्मी, अमानुषिकता और अनाचार की कहानी लिखी थी।
एक जगह मैं ठिठक गई। लिखा था, “अब जिया नहीं जाता। दम घुटता है मेरा।
मैं इतनी बुरी हूँ...! आज जब फोन पर उमेश को बताया कि बेदर्दी से पीट रहे उसके
पिता को मैंने जोर से धक्का दे दिया तो वह भी मुझे ही दोषी ठहराने लगा कि ‘जैसे भी
हों वे हमारे पिता हैं उस घर के मुखिया! और ये सुन कर आपकी बहुएं भी तो यही
सीखेंगीं।’ मैं सन्न रह गयी मुझे विरोध करते देख उनकी पत्नियाँ भी विरोध करना न
सीख जाएँ...! इस लिए उन सब ने मिल कर मेरी आवाज़ को दबा दिया। अब तक मैं चुपचाप
प्रताड़ित होती रही,
वो ठीक था? आज मेरे प्रतिवाद से उनके पुरुषार्थ को भी
ठेस पहुँचा था? कैसे जीऊँ ? अब तो चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा है। हे ईश्वर ! अब और साँसें
नहीं चाहिए। नहीं जीना चाहती एक पल भी।“
पढ़ कर मैं अपनी हिचकियाँ नहीं रोक पायी और साड़ी के पल्लू से मुँह दबा कर रो पड़ी।
खूब रो लेने के बाद मैं थोड़ा सामान्य हुई तो बोतल से पानी पी कर आँखें बंद की और टेक
ले कर बैठ गई। मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दी, “हे ईश्वर ! अच्छा किया जो मुझे दो बेटियाँ दीं, तेरा लाख-लाख आभार।”
पौ फटने को थी। खिड़की के बाहर का दृश्य अब कुछ-कुछ दिखाई दे रहा था। मेरा स्टेशन भी आने वाला था। उतरते हुए कुछ छूट न जाय इस लिए मैंने अपना सामान समेट कर रख लिया। मेरी नज़र सामने की बर्थ पर अपने दुधमुहे बेटे की नैपी बदल रही स्त्री पर ठहर गयी। उसने गंदी नैपी को अखबार में लपेट कर सीट के नीचे सरका दिया था और दूसरी पहना कर अपनी छाती से लगा बच्चे के नर्म मुलायम बालों में स्नेह से उंगलियाँ फेरते हुए ममता से सींच रही थी। उसके चेहरे से वात्सल्य का सोता-सा फूट रहा था। ट्रेन की रफ़्तार अब धीमी हो रही थी।
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लेखिका - मीना पाठक
(कथाक्रम पत्रिका के अक्टूबर-दिसंबर 2015 अंक में प्रकाशित )
चित्र - साभार गूगल