कैसे खुश होते हो तुम
स्त्री के आँखों में अश्रु ला
उसे असीम पीड़ा दे कर ?
अहिल्या को श्राप दे
पाषाण बनाते हो, फिर
स्पर्श कर तारनहार बन जाते हो,
वैदेही को अग्नि में तपाते हो
उसी की स्वर्ण प्रतिमा बना
मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हो
फिर क्यूँ ?
उसे निष्कासन का दण्ड सुनाते हो
वृंदा का मान भंग कर
तुलसी पावन कर देते हो,
हे देव पुरुष !
स्त्री को गिरा कर उठाना
पुजवाना स्वयं को उससे
तुम्हें खूब भाता है
उस पर व्यथाओं का भार लादना
तुम्हें आता है
और हे स्त्री !
तुम हो कितनी भोली
हर रूप में छली जाती हो
नाम लूँ किस-किस का
द्रोपदी, शकुंतला
या हो आज की नारी
हर युग में छली जाती हो
बारी-बारी !!
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