Friday, September 6, 2013

कोमल एहसास

याद है !!
जब तुम्हारा जन्म हुआ था
एक नर्म तौलिये में लपेट
मुझे तुम्हारी एक
झलक दिखलाई थी
तुम्हे देखते ही
भूल गयी थी दर्द सारा
खों गयी थी
गुलाब की पंखुड़ियों जैसी सूरत में
कितना प्यारा था स्पर्श तुम्हारा
नर्म
बिलकुल रुई के फाहों जैसा
खुश थी छू के तुम्हे

तुम मद मस्त नींद में
लग रहा था
लम्बा सफ़र तय किया है तुमने
कितने दिनों के थके हो जैसे

जब तुमने
आँखें खोली पहली बार
इस नयी दुनिया को देखने की कोशिश
तुम्हारी काली चमकदार आँखें
ढूंढ रही थीं कुछ
मै हर्षित देख रही थी
तुम्हे आँखें घुमाते हुए
जब तुमने
अपना सिर घुमा के
करीब देखा मुझे
एक हल्की मुस्कान के साथ
आँखे बंद कर के सो गये
जैसे तुमने पा लिया था उसे
जिसे ढूंढ रहे थे
मै तुम्हे नींद में मुस्कुराते देख
ऐसे तृप्त हो गयी थी जैसे
बंजर जमीन हो गई हो हरी-भरी
पतझड़ के बाद आ गयी हो बसंत ऋतु
पड़ी हो सूखी धरती पर बरखा की फुहार
आँचल से फूट पड़ी ममता की धार 
तुम्हे अपने आँचल से ढक
कलेजे से लगा कर
मै भी सो गई थी !!....

आज तेरी छवि है मेरे सामने
पर कलेजे से लगाने को तरसती हूँ
आँखों में आँसूओं का समंदर,
हृदय में ममता की लहरें
दूर तु मुझसे और मै तुझसे
मिलेगा कभी ना कभी
यही आस,
यही उम्मीद लिए बैठी हूँ ||!!!

||मीना पाठक ||

चित्र-- साभार गूगल

Thursday, July 18, 2013

जल














जल

इस संसार में समस्त जीवों, पशुओं और पौधे सब को पानी की आवश्यकता है | प्राचीन काल में लोगों ने बस्तियाँ कस्बा, नगर, गाँव, नदियों के किनारे ही बसाये थे ताकि वो जो फसल या पेड़ पौधे लगाएं उसको नदियों से पर्याप्त जल मिलता रहे | पर उन्होंने नदियों की ज़मीन नहीं हथियाई, प्रकृति के साथ छेड़छाड़ नही किया |

जल ही जीवन है | पर जब यही जल प्रलय बन के टूट पड़े तो न जाने कितने जीवन लील लेता है | जब ये जल का जलजला आता है तब अपने साथ तबाही और बर्बादी ले कर आता है चारों तरफ़ चीख पुकार ..इधर-उधर भागते हुए लोग और अपनों को अपने सामने ही जल समाधि लेते हुए देख कर भी कुछ ना कर पाने को विवश लोग और जब जाता है तब अपने पीछे छोड़ जाता है लाशों के ढेर, उजड़ी हुई बस्तीयां, नगर और गाँव, रोते बिलखते लोग | बसे बसाये नगर शमशान में तब्दील हों जाते है |
किसी भी चीज की अधिकता विनाशकारी है नदिया जब तक अपनी मर्यादा में बहें तभी तक जल जीवन है पर नदी में जल का उफान आते ही वो अपने किनारों को छोड़ बाहर आ जाती है और तभी आता है जल प्रलय |
अखिर इसका जिम्मेदार कौन है | हमारी एक इंच ज़मीन कोई ले ले तो हम उसे पाने के लिए ना जाने क्या क्या करते हैं पर हमने इन नदियों की कितनी ज़मीन हड़प ली फिर भी ये सब कुछ सहती हुई शांत बहती रही और हमें जीवन देती रही पर आखिर कब तक वो भी कब तक सहती हमने तो अति ही कर दी | उसके सीने पर होटल, मकान से ले कर दूकान तक बना डाले और उसी की ज़मीन पर जम कर पैसे बनने लगे | हम तो अपनी जेबे भरते रहे पर उसके दिल में कितने छेद हुए ये नही देख पाए और जब वो दर्द नहीं सह पायी तब उसने तोड़ दी सारी मर्यादा और गुस्से से उफनाती हुई पूरे हक से अपनी ज़मीन वापस ले ली | उसने तो अपना हक ही लिया जो हमने उससे छीना था | असली दोषी कौन है हम या वो नदी जिसे सिकुड़ने पर हमने मजबूर कर दिया था | आज उसने फैलाव लिया तो सब छिन्न - भिन्न, चीख पुकार, हाहाकार और विनाश के सिवा कुछ भी हाथ नही लगा |
नदियाँ अपनी मर्यादा में रहें इसके लिए हमे खुद मर्यादा में रहना होगा | उनकी ज़मीन पर अवैध निर्माण, ना जाने कितने जल बिद्दुत परियोजनाएं. बाँध और गंदे नालों का पानी उसमे निरने से रोकना होगा | वृक्ष लगाने होंगे जो विकाश के नाम पर कटते जा रहे हैं | अगर हम अपनी सीमाएं नहीं तोड़ेंगे तो नदियां भी अपनी सीमा में ही बहेंगी | प्रकृति हमें देती है हम से कुछ लेती नही, हम ही प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते हैं और उसका खामियाजा खुद ही भुगतते हैं और सारा दोष प्रकृति के सिर मढ़ देते हैं | अलखनंदा व मंदाकिनी ने अपना रौद्र रूप दिखा कर हमें सचेत किया है, हम अब भी ना चेते तो भगवान ही मालिक है |

||मीना पाठक||

चित्र - गूगल  

Tuesday, July 9, 2013

चाह बस् इतना कि
















चाह नही मुझे कि..
मिलूँ तुमसे बागों व बहारों में

चाह नही मुझे कि..
मिलूँ तुमसे नदी के किनारों पे

चाह नही मुझे कि..
तुम छेड़ो बंसी की तान और
झूमती आऊँ मै

चाह नही कि..
तुम बैठो कदम्ब की डाल और
नाच के रिझाऊँ मै

चाह नही कि..
थामूं तुम्हारा हाथ और
निहारूँ तुम्हारी आँखों में


चाह बस इतनी कि..
हे ! नाथ
छू लूँ तुम्हारे
पद पंकज और
हाथ हो तुम्हारा मेरे सिर पर ||

मीना पाठक

Monday, June 17, 2013

साधन मात्र



जब भी राकेश देर रात तक काम करते हैं रानी कितना ख्याल रखती है | जब तक राकेश काम करते हैं रानी दोनों बच्चों को मुंह पर उंगुली रख कर चुप कराती रहती है | बीच-बीच में उनको चाय बना के दे आती है | राकेश भी उसे बुला के सामने बैठा लेते हैं –“तुम सामने रहती हो तो काम जल्दी हो जाता हैये बोल कर कितना लाड दिखाते हैं | जब तक वो काम करते रहते है रानी भी जागती रहती है फिर सुबह जल्दी उठ कर बच्चों को तैयार कर के स्कूल भेज देती है | बच्चे अगर जोर से बोलते हैं तो उन्हें चुप करा देती है पापा रात देर से सोये है शोर मत करो बच्चे भी चुप हो जाते हैं | राकेश ९ बजे सो कर उठते हैं तब तक उनका नाश्ता और लंच दोनों तैयार कर के दे देती है और वो ऑफिस चले जाते हैं |
 हर सम्भव ख्याल रखती है, उनके जूते,कपड़े,उनकी सेविंग किट यहां तक कि उनकी फाईलें भी वही संभालती है | पर जब भी वो कुछ पढ़ने या लिखने बैठती है तो राकेश को जाने क्या हो जाता है और उनका व्यवहार बहुत रूढ़ हो जाता है |
आज भी वो सब काम खत्म कर के अपनी कविता लिख रही थी तो राकेश ने कितनी जोर से डांट दिया
–“जब देखो ये फालतू का काम ले के बैठ जाती हो मेरे लिए तो समय ही नही तुम्हारे पास, लाइट बंद करो सोऊँगा नही तो कल ऑफिस में सिर दर्द होगा तुम्हे क्या घर में पड़ी सोती रहोगी”|
रानी अपनी डायरी और कलम समेटती हुई दुखी मन से उठती है और आल्मारी में रख देती है | एक यही काम तो वो खुद की खुशी के लिए करती है बाकी सारा दिन तो सब के लिए जीती है और बस इतनी सी बात राकेश को बर्दास्त नही होती |
रानी लाइट बंद कर के लेट जाती है और अपने आँसू पोंछते हुए सोचने लगती है कि उसने तो कभी नही कहा
मुझे माइग्रेन है मैं देर रात तक तुम्हारे साथ जागती हूँ तो अगले दिन मुझे माइग्रेन का अटैक पड़ जाता है | मै किस तरह दवा खा के घर का और बच्चों का काम करती हूँ तुम्हे क्या पता तुम तो शाम को आते हो और मेरा सूजा हुआ चेहरा देखते हो तो यही कहते हो कि - " अभी सो कर उठी हो क्या जो तुम्हारा चेहरा इतना सूजा हुआ है" अब मैं तुम्हे क्या बताऊँ कि मेरा चेहरा सोने से नही माइग्रेन की वजह से सूजा हुआ है | अंघेरे में रानी अपने आँसू बार बार पोंछ लेती है इतने में राकेश का भरी भरकम हाथ उसके उपर आ
जाता है और वो उस हाथ के नीचे अपने आप को दबा हुआ महसूस करती है | मैं क्या हूँ राकेश के लिए सिर्फ उनकी जरूरतों को पूरा करने का एक साधन मात्र बस ……..और कुछ नही |
राकेश जान ना जाएं इस लिए रानी धीरे से अपनी आँखों को पोंछ के सुखा देती है |



मीना पाठक 

अपने पापा के नाम एक पत्र







                                              एक पत्र अपने पापा के नाम  


आदरणीय पापा जी

                          सादर चरणस्पर्श



मैं यहाँ पर कुशल पूर्वक रहती हुई ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि आप जहाँ कहीं भी हों सकुशल हों |
पापा आप कैसे हैं ? इतने दिनों से आप की कोई खबर नही | आप की बहुत याद आती है पापा. आप हमें छोड़ कर क्यों चले गये ? आपने एक बार भी नही सोचा की माँ आप के बिना अकेले कैसे रहेगी, हमसब भाई-बहनों को वो अकेले कैसे पालेगी, एक बार तो सोचा होता आप ने पापा | मैं ही कुछ बड़ी थी बाकी दोनों बहने छोटी थी और भाई तो मात्र ग्यारह महीने का था, जब आप हमें छोड़ गये थे |
पापा अब देखिये ना आ कर कि हम सब बड़े हों गये हैं और समझदार भी | बस् एक बार आप आ जाइये पापा, मेरी बहुत तमन्ना है कि एक बार फिर से आप मुझे अपने सीने से लगा कर मेरे सिर पर अपना स्नेह भरा हाथ रख दें | बहुत याद आती है आप की पापा, कोई भी दिन आप की याद के बिना नही गुजरता है | अकेले छुप-छुप कर रोती हूँ, अगर बच्चों ने देख लिया तो मुंह घूमा के आँसू पोंछ लेती हूँ |
पापा .. मुझे आप की सब बाते याद हैं, जब माँ ने आप से एक अच्छी साड़ी की फरमाइश  की थी तब आप ने कितने प्यार से माँ को समझा दिया था कि
तुम जैसी भी साड़ी पहन लो बहुत अच्छी लगती हों और माँ मुस्कुरा के रह गई थी | वो बात भी याद है मुझे जब चाचा के असमय सफ़ेद हुए बालों को कलर लगा के काला किया था आप ने और फिर उनके बालों को धो कर एक-एक बाल हटा-हटा कर आप देख रहे थे कि कहीं कोई बाल सफ़ेद तो नही रह गया | इंटरव्यू में ओवर एज कह के निकाल ना दिया जाए चाचा ये डर था आप के मन में इसी लिए आप ने ये सब किया था और आप के प्रयास से चाचा को सरकारी नौकरी मिल गयी थी | अब तो वो भी रिटायर होने वाले है | मुझे सब याद है पापा आप को ही मेरी याद नहीं आती तभी तो आप मेरी सुध नहीं लेते कभी |
पापा जब आप थे तब हमारे पास बहुत सी सुविधाएँ नही थीं पर आप का हाथ था हमारे सिर पर तो किसी भी चीज की कमी महसूस नहीं होती थी, आज हमारे पास सब कुछ हैं पर आप नही हैं तो कुछ भी नही है पापा कुछ भी नही ......
पहले तो आप मेरे सपने में आ जाते थे पर अब तो आप सपने में भी नहीं आते पापा | रोज सोच के सोती हूँ कि आज रात को सपने में जरूर मिलूँगी आप से पर सुबह उठ के निराश हो जाती हूँ, थोड़ी देर उदास हो कर बैठी रहती हूँ फिर अपने काम में लग जाती हूँ | आप तो मुझे बहुत प्यार करते थे पापा, फिर मुझे अकेली क्यूँ छोड़ गये आप ?
जब भी दुखी होती हूँ आप को याद कर के रोती हूँ कि अगर आप होते तो मैं अपने आप को यूँ अकेला और  कमजोर न महसूस करती | सारी दुनिया दुःख में भगवान को याद करती है पर मुझे आप याद आतें हैं पापा, जार-जार रोती हूँ आप को याद कर के | अब तो थक चुकी हूँ रो-रो कर, आप नहीं आएंगे मुझे पता है, अब तो एक ही रास्ता है आप से मिलने का ............................
                                               मुझे ही आना होगा आप के पास | वहीं आ कर आप से लिपट कर जी भर के रोऊँगी और अपने दिल की सारी बातें आप से कहूँगी जो अब तक किसी से नहीं कह पाई | कोई मुझे नहीं समझता पर आप मुझे अच्छी तरह समझते हैं पापा, मेरे दिल की हर बात समझते हैं आप, मुझे पता है | आप से मिल कर मुझे शान्ती मिलेगी और सभी दुखों से छुटकारा भी ........................
मैं ही आऊँगी पापा ..... मैं ही आऊँगी आप के पास .... मेरा इन्तजार कीजियेगा पापा .......

                                                 आप की लाडली
                                                   मीना

 

Friday, March 8, 2013

तुमसे मिलने का असर है




















कभी चाह थी बहुत दिल मे 
कि छू लूँ मैं भी बढ़ा के हाथ 
मिट्टी,हवा,पानी इन सब को 
पीछे छोड़ शून्य को 
जिंदगी को चाह थी भरपूर जीने की
थी ललक, कुछ भी कर गुजरने की 
जिंदगी एक किताब खूबसूरत थी 
जिसे पढ़ने की प्यार से तमन्ना थी 

फिर घेरा ऐसा बादलों ने निराशा के 
खुद से बातें करती,हंसती,रोती,बावली 
सी, ना चाह रही जीने की ना ललक 
कुछ करने की ...........................
बिखरी हुई सी ज़िंदगी,पन्ना-दर-पन्ना 
पलती गई यूँ ही, ज़िंदगी रेत की तरह 
हाथ से फिसलती गई

जाग उठी है अब फिर से वही पुरानी 
चाह जीने की,ललक कुछ करने की 
जिंदगी की खूबसूरत किताब को 
तमन्ना प्यार से पढ़ने की 
मिट्टी,हवा,पानी सब को पीछे छोड़ हाथ 
बढ़ा कर शून्य को छूने की , शायद ये 
तुमसे मिलने का असर है मुझ पर ||

चित्र -गूगल 

Monday, March 4, 2013

छाँव
















वसू हूँ मैं
मेरे ही अन्दर
से तो फूटे हैं
श्रृष्टि के अंकुर 
आँचल की 
ममता दे सींचा 
अपने आप में
जकड़ कर रक्खा 
ताकि वक्त 
की तेज आंधियाँ
उन्हें अपने साथ 
उड़ा ना ले जाएं
बढ़ते हुए 
निहारती रही 
पल-पल 
अब वो नन्हें 
से अंकुर 
विशाल वृक्ष 
बन चुके हैं 
और मैं बैठी हूँ 
उस वृक्ष की 
शीतल छाँव में 
आनन्दित 
मगन
अपने आप में ||

शापित

                           माँ का घर , यानी कि मायका! मायके जाने की खुशी ही अलग होती है। अपने परिवार के साथ-साथ बचपन के दोस्तों के साथ मिलन...