कभी चाह थी बहुत दिल मे
कि छू लूँ मैं भी बढ़ा के हाथ
मिट्टी,हवा,पानी इन सब को
पीछे छोड़ शून्य को
जिंदगी को चाह थी भरपूर जीने की
थी ललक, कुछ भी कर गुजरने की
जिंदगी एक किताब खूबसूरत थी
जिसे पढ़ने की प्यार से तमन्ना थी
फिर घेरा ऐसा बादलों ने निराशा के
खुद से बातें करती,हंसती,रोती,बावली
सी, ना चाह रही जीने की ना ललक
कुछ करने की ...........................
बिखरी हुई सी ज़िंदगी,पन्ना-दर-पन्ना
पलती गई यूँ ही, ज़िंदगी रेत की तरह
हाथ से फिसलती गई
जाग उठी है अब फिर से वही पुरानी
चाह जीने की,ललक कुछ करने की
जिंदगी की खूबसूरत किताब को
तमन्ना प्यार से पढ़ने की
मिट्टी,हवा,पानी सब को पीछे छोड़ हाथ
बढ़ा कर शून्य को छूने की , शायद ये
तुमसे मिलने का असर है मुझ पर ||
चित्र -गूगल
हाथ बढाने की कल्पना सुंदर है। हाथ के साथ कल्पना में कदम बढाने का भी संकेत अपने आप आ रहा है। अपने मन मुताबिक जीने की ललक आजादी का संकेत देती है। संक्षिप्त कविता में व्यापक वर्णन है।
ReplyDeletedrvtshinde.blogspot.com
हार्दिक आभार विजय जी
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