Friday, September 13, 2013

नजरिया हिन्दी पर

कल से ही तबियत कुछ ठीक नहीं थी इस लिए आज सुबह सुबह ही हॉस्पिटल के लिए निकल गई  वहाँ पहुँची तब तक भीड़ बहुत हो चुकी थी, अपना कार्ड  जमा कर के मैं आराम से बैठ गई | किसी को छींक भी आ गयी तो चलो दावा ले आते हैं, आखिर एयर फ़ोर्स का हस्पताल है फ्री में दवा मिल जाती है
तो लाभ क्यों न लिया जाय, शायद इसी सोच के चलते यहाँ रोज इतनी भीड़ रहती है और बेचारे जो सच में बीमार हैं उनको लंबा इन्तजार करना पड़ता है अपने न. का | करीब एक घंटे बाद मेरा नाम पुकारा गया मैंने जा कर अपना पर्चा लिया, देखा तो ४६ न. मिला था
मैंने सोचा गया आज का पूरा दिन , खैर .. इतनी दूर से आई थी तो सोचा जितना भी समय लगे डा. को दिखा कर ही जाऊँगी सो डा. के केबिन के सामने लगी भीड़ का हिस्सा मैं  भी बन गयी | वहाँ बैठ कर अपने न. का इन्तजार करने लगी | आज का दिन ही मेरे लिए ख़राब था डा. साहिबा
दो मरीज देखती तब तक कोई इमरजेंसी आ जाती और वो उठ कर चली जाती | कोई अपने न. के इन्तजार में ऊंघ रहा था तो कोई अपनी राय दे रहा था " एक ही डा. दोनों काम क्यों देख रही हैं, इमरजेंसी के लिए दूसरा डा. क्यों नही है" कुछ महिलायें एयर फ़ोर्स को कोस रहीं थीं "अरे ! फ्री
में थोड़े ही दवा कर रहे हैं, हम लोगो ने अपना बेटा दिया है, ये लोग हमारे बच्चों से जब चाहे जितना चाहे काम लेते हैं तब ये लोग हमें दवा  की सुविधा दे रहे हैं कोई एहसान नही कर रहे हैं हमारे ऊपर|" मैं  चुप चाप सब देख और सुन रही थी |मेरे सर में कुछ दर्द सा महसूस
हुआ और मैं  वहाँ से उठ कर अन्दर हाल में चली गयी, जो कि हम मरीजों के लिए ही बनाया गया था कि हम आराम से वहाँ बैठ कर अपने न. का इंतजार कर सकें | मैंने हाल में अन्दर जा कर इधर-उधर नजर दौड़ाई तो खिड़की के पास कूलर के सामने एक कुर्सी खली पड़ी थी, बाकी पूरा हाल भरा हुया था
मै जा कर कूलर के सामने बैठ गयी , ठंडी ठंडी हवा का असर हुआ और मुझे झपकी आ गयी | थोड़ी देर बाद बच्चे के रोने की आवाज सुन कर मैं चौंक पड़ी आँखे खोल कर देखा तो मेरी बगल वाली कुर्सी पर एक महिला करीब एक महीने के बच्ची को चुप कराने में लगी थी | बच्ची फूल सी नाजुक
और मलमल सी कोमल थी उसके होठ गुलाब की पंखुड़ियों जैसे लाल थे, मेरा दिल किया कि एक बार उसे छू लूं पर मैंने ऐसा किया नहीं मेरी नींद टूट चुकी थी मैंने धीरे धीरे अपने अगल बगल बैठी महिलाओं से बातें करना शुरू  किया | मैं भी क्या करती बोर जो हो रही थी तो जल्दी ही
हम महिलाओं का एक ग्रुप बन गया हम सभी एक दूसरे के बारे में पूछने लगीं  और अपने बारे में बताने लगीं कि कितने बच्चे हैं,कौन - कौन  सी कक्षा में पढ़ते हैं और किसके पति कहाँ-कहाँ पोस्टेड हैं आदि आदि |घर परिवार की बात होते होते बात बच्चों की  शिक्षा पर आ कर अटक गई | सभी के बच्चे
अंग्रेजी माध्यम से पढ़ रहे थे और सभी महिलाएँ अपने बच्चों के स्कूल के नाम बढ़-चढ़ के बता रहीं थीं | हम लोगो की  बाते वहाँ  बैठे पुरुष भी बड़े ध्यान से सुन रहे थे |एक बुजुर्ग महिला जो बड़ी देर से हमारी बाते सुन रही थी बोली "आज कल कोई भी माता-पिता अपने बच्चों को हिंदी
माध्यम से नहीं पढ़ाना चाहते,  सब अपना स्टेटस मेंटेन करने के लिए बड़े - बड़े अंग्रेजी स्कूलों में अपने बच्चों
 का दाखिला करवाते हैं और अपनी जेब हल्की करते हैं , जहाँ न तो नैतिक शिक्षा दी जाती है न सामाजिक, जिसके फलस्वरूप आज समाज में कितने अपराघ बढ़ गए हैं, शहरों में माता पिता अकेले रहने लगे हैं , बेटे उन्हें पैसे भेज कर अपनी जिम्मेदारी की पूर्ती कर लेते हैं | शिक्षा का पूरी तरह से व्यवसायीकरण हो गया है , बच्चों को सिर्फ पैसे कमाने की सीख दी जा रही है, नैतिक मूल्यों और संस्कारों से इनका कोई लेना देना नहीं है |
वो महिला साँस ले के फिर बोली गार्जियन बड़े गर्व से बताते हैं कि मेरा बच्चा सभी विषय में अब्बल है पर हिंदी में कमजोर  है कितने   शर्म की बात है | हिंदी हमारी मातृभाषा  है और आज के बच्चे उसी में कमजोर हैं ,और माता पिता भी खुश हैं कि मेरा बच्चा सिर्फ हिंदी में कमजोर है, चलेगा पर अगर अंग्रेजी में बच्चा कमजोर हो तो ये नहीं चलेगा उसे ट्यूशन लगवा दिया जाएगा |अपने ही देश में हिंदी के से इतना भेद भाव ?
वो महिला इतना बोल के हम सब का चेहरा देखने लगी, शायद वो अपने प्रश्न का जवाब चाहती थीं | वहां सभी बगलें झाँकने लगे क्यूँ कि थोड़ी देर पहले ही सभी महिलायें अपने अपने बच्चों के इग्लिश मीडियम स्कूलों के नाम बड़े गर्व से बता रहीं थीं, सब चुप थीं मैं भी चुप हो कर बड़े गौर से सभी के चेहरे पढ़ रही थी तब तक वो बुजुर्ग महिला फिर से बोल पड़ीं क्या हिंदी मीडियम स्कूलों में अंग्रेजी की  शिक्षा नही दी जाती है ? प्रश्न करने के बाद जवाब भी उन्होंने खुद ही दे दिया " दी जाती है  और साथ साथ सामाजिक और नैतिक शिक्षा भी दी जाती है , मेरे दो बेटे हैं और वो दोनों हिंदी माध्यम से पढ़े हैं एक डा. है और दूसरा इंजीनियर , बड़े गर्व से महिला ने बताया, मुझे भी सुन के बहुत अच्छा लगा उस महिला की बात से कही न कही मैं भी  सहमत थी क्यों कि मेरा एक बेटा हिंदी माध्यम से पढ़ कर प्रशासनिक सेवा में था  तो दूसरा अंग्रेजी माध्यम से १२वी. में पढ़ रहा था दोनों के अंतर को मै खुद भी देख रही थी, हिन्दी में कम न. आने पर जब भी मैं उसे डांटती, वो बोलता कि "अरे मम्मी हिंदी भी कोई सब्जेक्ट है, तो मैं  उसे समझाती थी कि हिंदी हमारी मातृभाषा है, उसमे तो तुम्हारे पूर के पूरे न. आने चाहिए तो बेटा उल्टे मुझे ही समझा देता कि मम्मी आप भी किस जमाने में जी रही हो
आज कल जिसे अंग्रेजी नही आती उसे कोई नहीं पूछता आप बहार निकलो तब जानो ना, हर जगह इग्लिश की डिमांड  है, सच ही तो बोल रहा था बेटा | एक सेल्समैन भी दरवाजे पर आता है तो वो अंग्रेजी में ही बोलता है |आज की पीढ़ी की ये सोच है हिंदी के प्रति, दुःख होता है कि अपनी मातृभाषा की दुर्दशा है पर इसका जिम्मेदार कौन है क्या ये हमारी जिम्मेदारी नही कि बच्चों को इस बात की गंभीरता समझाई जाय कि जैसे अंग्रेजी पढना जरूरी है वैसे ही हिंदी भी बहुत जरूरी है | हम जब किसी बच्चे को फर्रा टे ेसे अंग्रेजी बोलते देखते हैं तो घर में आ कर अपने बच्चों से बोलते है कि फला बच्चा कितनी अच्छी अंग्रेजी बोल रहा था और एक तुम हो
कि इतना पैसा खर्च करने के बाद भी अंग्रेजी बोलनी नहीं आती तुम्हे हर समय हिंदी में बात करते हो .. अपने बच्चे को हिंदी की  अहमियत समझाने के बजाय हम उसे अंग्रेजी पर ज्यादा ध्यान देने के लिए जोर देते हैं | हमने ही तो हिंदी को बेचारी बना रखा है , हिंदी बोलने में लिखने में और हिंदी में हस्ताक्षर करने
में हमें शर्म आती है तो हिंदी की  दुर्दशा ्क्यों  न हो | अपने ही घर में हिंदी अलग थलग पड़ी है और इसके जिम्मेदार हम ही हैं | हमें अपने बच्चों में  हिंदी के प्रति सम्मान को जगाना होगा ये समझाना होगा कि हिंदी बोलना और लिखना हमारे लिए गौरव की बात है | हिंदी मात्र एक विषय नही हिंदी हमारा मान है | कहते हैं कि घर बच्चे की प्रथम पाठशाला है और माँ प्रथम गुरु तो बच्चे के अन्दर हिंदी के प्रति सम्मान की भावना विकसित करने की पहली जिम्मेदारी हम माँओं की ही बनती है | मैं अंग्रेजी शिक्षा की विरोधी नहीं, भाषा तो कोई भी हो एक दुसरे से जोड़ने का काम करती है पर अपनी भाषा को नकारना या उसे हल्का समझना कहाँ की समझदारी है | दुनिया के हर देश में अपनी - अपनी भाषा बोली जाती है यहाँ तक कि वहां के सरकारी कार्यालयों में भी वहां की ही भाषा में काम होता है पर हमारे यहाँ सरकारी काम भी विदेशी भाषा में होता हैं | यही सब सोचते हुए मैंने एक लम्बी सी साँस ली और उठ कर हाल के बाहर आ गयी | उस महिला का न. शायद आ चुका था , मेरी नजरे उस महिला को ढूंड रही थी पर वो कहीं दिखाई नहीं पड़ी मुझे | मैंने दरवाजे के ऊपर देखा ४० न. चल रहा था मैंने चैन की साँस ली कि थोड़ी देर में मेरा न. आने वाला है , मैं लाइन में खड़ी हो गयी तब तक
जोर से  सायरन की आवाज सुनाई दी एयर फ़ोर्स की वर्दी में सजे सभी छोटे बड़े कर्मचारी दौड़ पड़े, शायद फिर से कोई इमरजेंसी आ गयी थी  |५ मिनट बाद ही डा. साहिबा भी अपनी केबिन से निकल कर उसे देखने चली गयीं | मैं लाइन से हट कर फिर से कुर्सी पर  बैठ गयी अपने न. के इन्तजार में ||


मीना पाठक

8 comments:

  1. Apki lekhili me maulikta aur sahjta saaf jhalkti hai ... Sundar sarthak lekhan ke liye bahut badhai Apko Meena Didi ..

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    1. हौसलाअफजाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद शोभा

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  2. बहुत बढ़िया कहानी और अलग सी प्रेरित करती हुयी

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  3. बहुत बहुत धन्यवाद उपासना सखी

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  4. Bahut Sunder achchha Prayaas hai.. Aage badhati rahe..:) Shubhkamnaye...

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    1. हार्दिक आभार सुनील दी

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