जाने कितने बसंत
शीत,पतझड़, सावन
आये गये
तपती,भीगती,ठिठुरती
मुरझाती पर फिर भी
चलती रही अनवरत
हाँफती,दौड़ती,पसीजती
डोर अपनी साँसों की पकड़े
कोलाहल अंतर का समेटे
मूक, निःशब्द बस्
अपने काफिले के साथ
बढ़ती ही गई जीवन के पथ पर !!
अपनी साँसें संयत करने को
रुकी इक पल को
पीछे मुड़ कर देखा जो
छोड़ गये थे सभी मुझको
मेरे पीछे था अब सुनसान
आगे वियावान
नीचे तपती रेत
ऊपर सुलगता आसमान
बीच में झुलसती मैं
अकेली जीवन के रेगिस्तान में ||
*****
जीवन का संघर्ष बयाँ करती रचना... बेहतरीन अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteआभार आप का
Deleteदिल को छु गय हेर शब्द
ReplyDeleteआभार आशा जी
Deleteयही जीवन है नारी का... बहुत सुंदर रचना मीना
ReplyDeleteआभार रमा सखी
ReplyDeleteआपकी इस उत्तम रचना को हिंदी बलोगेर्स चौपाल में शामिल किया गया हैं http://hindibloggerscaupala.blogspot.com/शुक्रवार} 4/10/2013
ReplyDeleteकृपया अव्लोकानार्थ पधारे .धन्यवाद