Wednesday, October 2, 2013

नजरिया बहुओं के प्रति

आज बहुत दिनों बाद मै मिश्रा जी के घर जा रही थी | उनके चार बच्चें हैं, दो बेटे और दो बेटियाँ  | दोनों बेटे बड़े हैं बेटियों से, दोनों की शादी हो चुकी है,दोनो बहुएं पढ़ी-लिखी होने के बावजूद घरेलू जीवन बिता रहीं हैं उन्हें कुछ करने की आजादी नही है जब कि लगभग उनकी हमउम्र ननदें पढ़ाई पूरी कर के जॉब कर रहीं हैं | अभी पिछले महीने ही बड़ी की शादी हुई है | छोटी अभी है शादी के लिए, वो एक कोलेज में इग्लिश की प्रोफ़ेसर है और कोचिंग से भी उसको बहुत आमदनी है तो घर में उसकी तूती बोलती है | बिना उससे पूछे घर में कोई निर्णय नही लिया जाता है और बहुएँ ... कोई दीदी के नहाने के लिए पानी गर्म कर रही है तो कोई जल्दी-जल्दी नाश्ता बना रही है | दीदी के नहा के आते ही उनकी साड़ी स्त्री की हुई रख दी जाती है, नाश्ता मेज पर लग जाता है, उनका पर्श उनका मोबाइल उनकी जरुरत का हर सामान उनके सामने हाज़िर हो जाता है उसके बाद ठाट से दीदी तैयार हो कर घर से निकल जातीं हैं | यही सब सोचते हुए मै उनके घर पहुँच गई |
मिसराइन चाची ने ही गेट खोला मैंने उनका पैर छूआ  वो भी मुझे देख कर खुश हो गईं, मै भी खुशी-खुशी अन्दर जा कर सोफे पर बैठ गयी | चाची ने आवाज लगाईं
अरे तनी आ के देखा लोगिन के आईल बा, तोहा लोगिन के सुत्ते के अलावा कउनो काम नइखे.. आवाज देने के बाद मुझसे मुखातिब हो कर चाची कहने लगी दिनवा भर सुत्ते ला लोग, का जाने केतना नींद आवेला ये लोगिन के| मैंने हँस के कहा अरे चाची जी, सोने दीजिए, आप हैं ना मेरे पास, वो थक गयीं होंगी काम कर के | चाची मुझे बहुओं का पक्ष लेते हुए देख कर थोड़ा तल्खी से बोली कवन काम बा घरवा में, गैस पर खाना बनावे के बा, स्टील के बर्तन धोवे के बा और मिश्रा जी जमीनिया पर टायल लगवा दिहले बानी कऊन  बड़ा मेहनत के काम करेला लोग, अरे काम त हम करत रहनी चूल्हा पर पुयरा झोंक-झोंक के खाना बनावत रहनी और फूल-पीतल के बर्तन माजत-माजत अऊर गोबर लीपत-लीपत कमरिये टूट जात रहे, तब्बो सास रानी के मुंह सीधा नाही रहे तौनो पे दुई चार ननद लोग धमकल रहत रहे लोग चाची की बातें सुन के मुझे उलझन हो रही थी, चाची पुराण शुरू हो गया था,कहाँ से कहाँ मै आ गयी अभी सोच ही रही थी कि अन्दर से उनकी एक बहू मुस्कुराती हुई आ गयी मैंने चैन की सांस ली | मैंने भी मुस्कुराते हुए पूछा कैसी हो ? वो कुछ बोलती इससे पहले ही चाची गुस्से में बोलीं बांस अईसन ठाड़ रहबू की गोड़ छुअबू ..वो बेचारी जल्दी से मेरे पैर छूने लगी मैंने उसे अपने पास बैठा लिया | चाची का चेहरा बदल गया था | दो मिनट बाद ही बोलीं चाची जा, जा के उनहूँ के जगा द और कुछु ले आवा चाय पानी और हाँ गितवा आवत होई उनहूँ के खातिर कुछू बाना लीह बेचारी बिहाने के निकलल अब आवत होई | मैंने देखा  बेटी का नाम आते ही उनके चेहरे से ममता टपकने लगी थी | मैंने बड़ी बेटी के बारे में पूछा तो चाची ने बड़े खुश होते हुए बताया कि वो तो दामाद के पास चली गयी | मैं उनके बदलते रूप को देख - देख कर घुट रही थी बहुओं से हमदर्दी होते हुए भी मै कुछ भी नही कर सकती थी | उनके बेटे अभी इतना नही कमा पा रहे थे कि अलग कहीं फ़्लैट ले कर रह सकें शायद इसी लिए वो ये सब सहने को मजबूर थीं | सब से मिल मिला के थोड़ी देर बाद मै घर आ गयी | घर आ कर फेस बुक खोला तो एक सुन्दर सी कविता बेटी पर मेरे सामने थी | मुझे फिर से चाची याद आ गयीं मैंने फेस बुक बंद किया और लिखने बैठ गई |

  आज ना जाने क्यों कुछ अलग सा लिखने को दिल कर रहा है | नहीं, इसे अलग नही कह सकते ये तो घर-घर की कहानी है | मै हमेशा फेसबुक या किसी पत्रिका में या किसी भी बेबसाईट पर बेटियों या बहनों के लिए कविता पढ़ती हूँ | बेटियां घर की शोभा हैं, बेटियाँ परिवार में हर एक के दिल की धडकन हैं, बेटियों से घर की बगिया खिली है तो बेटिओं से घर रोशन है आदि आदि ..पर मेरा सवाल ये है कि अगर बेटियां इतनी प्यारी हैं तो बहुए क्यों नही ? हम बेटियों को तो इतना प्यार देते हैं उनकी हर जरुरत का ख्याल रखते हैं उनको सम्मान देते हैं, अपनी हर जरुरत को दर किनार करते हुए उनकी हर एक जरुरत पूरी करते हैं तो बहुओं की क्यों नही ? क्या वो किसी की बेटियां नहीं हैं क्या वो हमारा कर्जा खा कर हमारे घरों में प्रवेश करती हैं ? उनके आते ही भारी-भरकम चाभियों का गुच्छा उनके हवाले कर दिया जाता है हलाकि अब ये फिल्मों तक ही सीमित रह गया है | अब ये गुच्छा सासों की कमर में ही रहता है हाँ रसोई उनके हवाले कर दिया जाता है |
बेटियाँ चाहें कितनी भी बड़ी हों पर माता-पिता को बच्ची ही लगती हैं और अगर उसी के उम्र की बहू घर में है तो वो हम सब को क्यों बच्ची नही लगती ? उसके ऊपर हम अपने बच्चों की भी जिम्मेदारी क्यों डाल देतें हैं ? एक ही उम्र की बेटी और बहू दोनों में कितना बड़ा अंतर होता है, एक कोलेज़ जाती है तो दूसरी पढ़ी-लिखी होते हुए भी रसोई में पसीने बहाती है, क्यों ? हम माँ-बाप तो वही रहते हैं फिर हमारा नजरिया दूसरी बेटी के लिए क्यों बादल जाता है | वो बेटी जो हमारे बेटे का हाथ पकड़ के अपना सब कुछ पीछे छोड़ कर हमे अपनाती है और उसी के प्रति हमारा बर्ताव कैसा होता है ? ये सोचने का विषय है | बेटे को तो हम जी-जान से चाहते हैं और उसकी पत्नी को हम जीवन भर अपना नही पाते क्यों ?
अपनी बेटी पर ममता की गंगा बहा देने वाले दूसरे की बेटी के साथ इतना क्रूर कैसे हो जाते हैं कि उनको प्रताड़ित करने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं | कहते हैं कि बेटियाँ कहीं भी रहें माँ-बाप से दिल दे जुड़ी रहती है ये सच् भी है पर क्या बहुएं हर दुःख-सुख में हमारा साथ नही निभातीं ? क्या कोई भी बेटी अपना घर अपने बच्चे छोड़ के हमारी सेवा के लिए हमारे पास आ कर दो-चार महीने रहती है, नही ना .. बहू ही करती है सब फिर भी हम उसे बेटी नही मानते, ठीक होते ही उसकी खामियां गिनने लगते हैं और अपनी बेटी दो दिन के लिए देखने आ गयी तो उससे बहू की हजार बुराइयां बताते हैं, ऐसा क्यूँ ?
मैंने कई घरों में बेटियों का बर्चस्व देखा है | घर में उन्ही की चलती है और घर की बहू दौड़-दौड़ के उनकी सेवा में लगी रहती है, दीदी ये,दीदी वो ...
अपनी बेटियों के लिए हम छोटा परिवार ढूंढते हैं जब की हमारे खुद के आधे दर्जन बच्चे होते हैं | अपनी बहुओं से हम चाहते हैं की वो घर का सारा काम करे सास-ससुर का ध्यान रखे, ननद की हर जरुरत का ख्याल रखे, देवर की जिम्मेदारी माँ की तरह निभाए पर अपनी बेटी जल्दी से जल्दी दामाद के साथ चली जाए यही चाहते हैं हम, ये दोहरापन क्यों ?

मैं मानती हूँ कि बेटियाँ हुत प्यारी होती है और ये सच् भी है कि बेटियाँ चाहे जितनी भी दूर रहें माता-पिता से जुड़ी रहतीं हैं पर हमारी बहुएं भी कुछ कम नही | अपने माता-पिता, भाई-बहन को छोड़ के हमारे घर आतीं हैं और आते ही हमारा हर सम्भव ख्याल रखना शुरू कर देती हैं, हर तरह से हमें खुश रखने की कोशिश करती हैं फिर हम उन्हें खुश क्यों नही रख पाते | हम बेटियों की इच्छाओं का कितना खयाल रखते हैं तो अपनी बहू की इच्छा का आदर क्यों नही करते | घर का काम बहू-बेटी दोनों मिल कर भी तो कर सकती है ना फिर सारा बोझ एक ही पर क्यों ?
आज जरुरत है मिसराइन चाची जैसे लोगों को अपना नजरिया बदलने की, बेटी और बहू के अंतर को खत्म करने की | अगर बेटी जॉब कर सकती है तो बहू क्यों नही और अगर बहू घर का काम कर रही है तो बेटी उसके काम में हाथ क्यों नही बटा सकती | बेटियों का वर्चस्व जब घर में बढ़ता है तब घर में क्लेश पैदा होता है | अगर हम दोनों को समान अधिकार देंगे और दोनों को एक समान स्नेह देंगे तो मुझे नही लगता कि कभी क्लेश की स्थिति उत्पन्न होगी और ये हमारे खुद के हाथ में हैं | बेटियों की तरह हमारी बहुएँ भी अनमोल हैं |

||मीना पाठक|
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चित्र - गूगल




Monday, September 30, 2013

जीवन के रेगिस्तान में
















जाने कितने बसंत
शीत,पतझड़, सावन
आये गये
तपती,भीगती,ठिठुरती
मुरझाती पर फिर भी
चलती रही अनवरत
हाँफती,दौड़ती,पसीजती
डोर अपनी साँसों की पकड़े
कोलाहल अंतर का समेटे
मूक, निःशब्द बस्
अपने काफिले के साथ
बढ़ती ही गई जीवन के पथ पर !!

अपनी साँसें संयत करने को
रुकी इक पल को
पीछे मुड़ कर देखा जो
छोड़ गये थे सभी मुझको
मेरे पीछे था अब सुनसान
आगे वियावान
नीचे तपती रेत
ऊपर सुलगता आसमान
बीच में झुलसती मैं
अकेली जीवन के रेगिस्तान में ||
  *****

Thursday, September 26, 2013

माँ तुम्हारा कर्ज चुकाना है

















नौ महीने
अपनी कोख में सम्भाला
पीड़ा सहकर
लायी मुझे दुनिया में
जानती हूँ
बहुत दुःख सह, ताने सुन
जन्म दिया मुझे

मैंने सुना था, माँ!
जब बाबा ने तुम्हें धमकाया था
कोख में ही मारने का
दबाव बनाया था
दादी ने क्या-क्या नही सुनाया!
पर तुम!
न डरी, न झुकी
मुझे जन्म दिया

हमारे होते भी
तुम निपूतनी कहलाई
पर तुम्हारे
प्यार में कमी न आई

तुम्हारे आँसुओं का
मोल चुकाना है
बेटी के जन्म से
झुका तुम्हारा सिर
गर्व से उठाना है
माँ! तुम्हारा कर्ज चुकाना है ||

मीना पाठक
चित्र -- साभार गूगल 

Friday, September 20, 2013

कराहती ज़िंदगी













रात के अँधेरे में कराहती हुई सुलोचना करवटें बदल रही थी | शरीर का कोई भी हिस्सा ऐसा नही था जहाँ चोट से काला निशान ना पड़ा हो जिस करवट भी सोती दर्द से कराह उठती थोड़ी देर बाद उठ के बैठ गयी और सोचने लगी "आखिर कब तक सहती रहूंगी ये सब प्रताड़नायें, झूठे आरोप, अब तो हद हो गयी है बर्दास्त के बाहर हैं मेरे, नहीं होता ये सब सहन अब, तो क्या करूं कहाँ जाऊँ, मायके से विदा होते समय यही तो कहा था माँ ने कि अब वो ही तुम्हारा घर है, यहाँ से डोली में जा रही हो वहाँ से अर्थी पर निकलना |" सुलोचना के सामने अंधेरा ही अंधेरा था,कहाँ जाए, बहार भी तो भेड़ियों का झुण्ड है, आत्महत्या कर सकूँ इतनी भी हिम्मत भगवान् ने नही दी मुझे, तो कहाँ जाऊं | कुछ समझ में नहीं आ रहा था और अब इस इंसान के साथ जीना मुश्किल था जो उसे इंसान नही जानवर समझता था |अचानक कुछ सोचते हुए उसकी आँखे चमक उठी और वो जोर जोर से हँसने लगी, अपने बाल नोचने लगी, अपना सिर दीवार पर जोर-जोर से मारने लगी | शोर सुन के घर के सभी लोग उसके कमरे में आ गए | जो सुलोचना सब कुछ चुपचाप सह लेती थी और बंद कमरे में आंसू बहाती थी उसी सुलोचना का ये रूप देख कर सभी दंग थे |
दो दिन बाद ही सुलोचना के दरवाजे पर एक एम्बुलेंस आ कर खड़ी हो गयी, उसमे से कुछ लोग उतर कर सुलोचना के कमरे की तरफ बढ़ गए | एम्बुलेंस पर लिखा था "मानसिक रूप से बिक्षिप्त रोगियों के लिए |"
|मीना पाठक|

Friday, September 13, 2013

हिन्दी हमारी मातृभाषा







हिन्दी हमारी मातृभाषा
हिन्दी हमारा मान है
हिन्दी से हम हिंदी हैं
देश हिन्दोस्तान है
भूल बैठे फिर क्यूँ हिन्दी हम
अंग्रेजी अपनाया है ...
इकदूजे से बोलचाल का
माध्यम उसे बनाया है
अंग्रेजों की अंग्रेजी अब भी
हम पर हावी है
अपनी हिन्दी को हमने
ही कहा बेचारी है
चलो उठो संकल्प करो
हिन्दी में लिखना पढना है
हिन्दी का गौरव सम्मान
बाइज्जत वापिस करना है
अपने नौनिहालों को हिन्दी
का पाठ पढ़ाएंगे
हिन्दी हमारी मातृभाषा है
ये घूटी पिलायेंगे
वही बड़े हो कर कल
हिन्दी का मान बढ़ाएंगे
हिन्दी का खोया सम्मान
उसे वापिस दिलाएंगे ||

हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ !! 

||मीना पाठक||

चित्र -- गूगल
 



 



नजरिया हिन्दी पर

कल से ही तबियत कुछ ठीक नहीं थी इस लिए आज सुबह सुबह ही हॉस्पिटल के लिए निकल गई  वहाँ पहुँची तब तक भीड़ बहुत हो चुकी थी, अपना कार्ड  जमा कर के मैं आराम से बैठ गई | किसी को छींक भी आ गयी तो चलो दावा ले आते हैं, आखिर एयर फ़ोर्स का हस्पताल है फ्री में दवा मिल जाती है
तो लाभ क्यों न लिया जाय, शायद इसी सोच के चलते यहाँ रोज इतनी भीड़ रहती है और बेचारे जो सच में बीमार हैं उनको लंबा इन्तजार करना पड़ता है अपने न. का | करीब एक घंटे बाद मेरा नाम पुकारा गया मैंने जा कर अपना पर्चा लिया, देखा तो ४६ न. मिला था
मैंने सोचा गया आज का पूरा दिन , खैर .. इतनी दूर से आई थी तो सोचा जितना भी समय लगे डा. को दिखा कर ही जाऊँगी सो डा. के केबिन के सामने लगी भीड़ का हिस्सा मैं  भी बन गयी | वहाँ बैठ कर अपने न. का इन्तजार करने लगी | आज का दिन ही मेरे लिए ख़राब था डा. साहिबा
दो मरीज देखती तब तक कोई इमरजेंसी आ जाती और वो उठ कर चली जाती | कोई अपने न. के इन्तजार में ऊंघ रहा था तो कोई अपनी राय दे रहा था " एक ही डा. दोनों काम क्यों देख रही हैं, इमरजेंसी के लिए दूसरा डा. क्यों नही है" कुछ महिलायें एयर फ़ोर्स को कोस रहीं थीं "अरे ! फ्री
में थोड़े ही दवा कर रहे हैं, हम लोगो ने अपना बेटा दिया है, ये लोग हमारे बच्चों से जब चाहे जितना चाहे काम लेते हैं तब ये लोग हमें दवा  की सुविधा दे रहे हैं कोई एहसान नही कर रहे हैं हमारे ऊपर|" मैं  चुप चाप सब देख और सुन रही थी |मेरे सर में कुछ दर्द सा महसूस
हुआ और मैं  वहाँ से उठ कर अन्दर हाल में चली गयी, जो कि हम मरीजों के लिए ही बनाया गया था कि हम आराम से वहाँ बैठ कर अपने न. का इंतजार कर सकें | मैंने हाल में अन्दर जा कर इधर-उधर नजर दौड़ाई तो खिड़की के पास कूलर के सामने एक कुर्सी खली पड़ी थी, बाकी पूरा हाल भरा हुया था
मै जा कर कूलर के सामने बैठ गयी , ठंडी ठंडी हवा का असर हुआ और मुझे झपकी आ गयी | थोड़ी देर बाद बच्चे के रोने की आवाज सुन कर मैं चौंक पड़ी आँखे खोल कर देखा तो मेरी बगल वाली कुर्सी पर एक महिला करीब एक महीने के बच्ची को चुप कराने में लगी थी | बच्ची फूल सी नाजुक
और मलमल सी कोमल थी उसके होठ गुलाब की पंखुड़ियों जैसे लाल थे, मेरा दिल किया कि एक बार उसे छू लूं पर मैंने ऐसा किया नहीं मेरी नींद टूट चुकी थी मैंने धीरे धीरे अपने अगल बगल बैठी महिलाओं से बातें करना शुरू  किया | मैं भी क्या करती बोर जो हो रही थी तो जल्दी ही
हम महिलाओं का एक ग्रुप बन गया हम सभी एक दूसरे के बारे में पूछने लगीं  और अपने बारे में बताने लगीं कि कितने बच्चे हैं,कौन - कौन  सी कक्षा में पढ़ते हैं और किसके पति कहाँ-कहाँ पोस्टेड हैं आदि आदि |घर परिवार की बात होते होते बात बच्चों की  शिक्षा पर आ कर अटक गई | सभी के बच्चे
अंग्रेजी माध्यम से पढ़ रहे थे और सभी महिलाएँ अपने बच्चों के स्कूल के नाम बढ़-चढ़ के बता रहीं थीं | हम लोगो की  बाते वहाँ  बैठे पुरुष भी बड़े ध्यान से सुन रहे थे |एक बुजुर्ग महिला जो बड़ी देर से हमारी बाते सुन रही थी बोली "आज कल कोई भी माता-पिता अपने बच्चों को हिंदी
माध्यम से नहीं पढ़ाना चाहते,  सब अपना स्टेटस मेंटेन करने के लिए बड़े - बड़े अंग्रेजी स्कूलों में अपने बच्चों
 का दाखिला करवाते हैं और अपनी जेब हल्की करते हैं , जहाँ न तो नैतिक शिक्षा दी जाती है न सामाजिक, जिसके फलस्वरूप आज समाज में कितने अपराघ बढ़ गए हैं, शहरों में माता पिता अकेले रहने लगे हैं , बेटे उन्हें पैसे भेज कर अपनी जिम्मेदारी की पूर्ती कर लेते हैं | शिक्षा का पूरी तरह से व्यवसायीकरण हो गया है , बच्चों को सिर्फ पैसे कमाने की सीख दी जा रही है, नैतिक मूल्यों और संस्कारों से इनका कोई लेना देना नहीं है |
वो महिला साँस ले के फिर बोली गार्जियन बड़े गर्व से बताते हैं कि मेरा बच्चा सभी विषय में अब्बल है पर हिंदी में कमजोर  है कितने   शर्म की बात है | हिंदी हमारी मातृभाषा  है और आज के बच्चे उसी में कमजोर हैं ,और माता पिता भी खुश हैं कि मेरा बच्चा सिर्फ हिंदी में कमजोर है, चलेगा पर अगर अंग्रेजी में बच्चा कमजोर हो तो ये नहीं चलेगा उसे ट्यूशन लगवा दिया जाएगा |अपने ही देश में हिंदी के से इतना भेद भाव ?
वो महिला इतना बोल के हम सब का चेहरा देखने लगी, शायद वो अपने प्रश्न का जवाब चाहती थीं | वहां सभी बगलें झाँकने लगे क्यूँ कि थोड़ी देर पहले ही सभी महिलायें अपने अपने बच्चों के इग्लिश मीडियम स्कूलों के नाम बड़े गर्व से बता रहीं थीं, सब चुप थीं मैं भी चुप हो कर बड़े गौर से सभी के चेहरे पढ़ रही थी तब तक वो बुजुर्ग महिला फिर से बोल पड़ीं क्या हिंदी मीडियम स्कूलों में अंग्रेजी की  शिक्षा नही दी जाती है ? प्रश्न करने के बाद जवाब भी उन्होंने खुद ही दे दिया " दी जाती है  और साथ साथ सामाजिक और नैतिक शिक्षा भी दी जाती है , मेरे दो बेटे हैं और वो दोनों हिंदी माध्यम से पढ़े हैं एक डा. है और दूसरा इंजीनियर , बड़े गर्व से महिला ने बताया, मुझे भी सुन के बहुत अच्छा लगा उस महिला की बात से कही न कही मैं भी  सहमत थी क्यों कि मेरा एक बेटा हिंदी माध्यम से पढ़ कर प्रशासनिक सेवा में था  तो दूसरा अंग्रेजी माध्यम से १२वी. में पढ़ रहा था दोनों के अंतर को मै खुद भी देख रही थी, हिन्दी में कम न. आने पर जब भी मैं उसे डांटती, वो बोलता कि "अरे मम्मी हिंदी भी कोई सब्जेक्ट है, तो मैं  उसे समझाती थी कि हिंदी हमारी मातृभाषा है, उसमे तो तुम्हारे पूर के पूरे न. आने चाहिए तो बेटा उल्टे मुझे ही समझा देता कि मम्मी आप भी किस जमाने में जी रही हो
आज कल जिसे अंग्रेजी नही आती उसे कोई नहीं पूछता आप बहार निकलो तब जानो ना, हर जगह इग्लिश की डिमांड  है, सच ही तो बोल रहा था बेटा | एक सेल्समैन भी दरवाजे पर आता है तो वो अंग्रेजी में ही बोलता है |आज की पीढ़ी की ये सोच है हिंदी के प्रति, दुःख होता है कि अपनी मातृभाषा की दुर्दशा है पर इसका जिम्मेदार कौन है क्या ये हमारी जिम्मेदारी नही कि बच्चों को इस बात की गंभीरता समझाई जाय कि जैसे अंग्रेजी पढना जरूरी है वैसे ही हिंदी भी बहुत जरूरी है | हम जब किसी बच्चे को फर्रा टे ेसे अंग्रेजी बोलते देखते हैं तो घर में आ कर अपने बच्चों से बोलते है कि फला बच्चा कितनी अच्छी अंग्रेजी बोल रहा था और एक तुम हो
कि इतना पैसा खर्च करने के बाद भी अंग्रेजी बोलनी नहीं आती तुम्हे हर समय हिंदी में बात करते हो .. अपने बच्चे को हिंदी की  अहमियत समझाने के बजाय हम उसे अंग्रेजी पर ज्यादा ध्यान देने के लिए जोर देते हैं | हमने ही तो हिंदी को बेचारी बना रखा है , हिंदी बोलने में लिखने में और हिंदी में हस्ताक्षर करने
में हमें शर्म आती है तो हिंदी की  दुर्दशा ्क्यों  न हो | अपने ही घर में हिंदी अलग थलग पड़ी है और इसके जिम्मेदार हम ही हैं | हमें अपने बच्चों में  हिंदी के प्रति सम्मान को जगाना होगा ये समझाना होगा कि हिंदी बोलना और लिखना हमारे लिए गौरव की बात है | हिंदी मात्र एक विषय नही हिंदी हमारा मान है | कहते हैं कि घर बच्चे की प्रथम पाठशाला है और माँ प्रथम गुरु तो बच्चे के अन्दर हिंदी के प्रति सम्मान की भावना विकसित करने की पहली जिम्मेदारी हम माँओं की ही बनती है | मैं अंग्रेजी शिक्षा की विरोधी नहीं, भाषा तो कोई भी हो एक दुसरे से जोड़ने का काम करती है पर अपनी भाषा को नकारना या उसे हल्का समझना कहाँ की समझदारी है | दुनिया के हर देश में अपनी - अपनी भाषा बोली जाती है यहाँ तक कि वहां के सरकारी कार्यालयों में भी वहां की ही भाषा में काम होता है पर हमारे यहाँ सरकारी काम भी विदेशी भाषा में होता हैं | यही सब सोचते हुए मैंने एक लम्बी सी साँस ली और उठ कर हाल के बाहर आ गयी | उस महिला का न. शायद आ चुका था , मेरी नजरे उस महिला को ढूंड रही थी पर वो कहीं दिखाई नहीं पड़ी मुझे | मैंने दरवाजे के ऊपर देखा ४० न. चल रहा था मैंने चैन की साँस ली कि थोड़ी देर में मेरा न. आने वाला है , मैं लाइन में खड़ी हो गयी तब तक
जोर से  सायरन की आवाज सुनाई दी एयर फ़ोर्स की वर्दी में सजे सभी छोटे बड़े कर्मचारी दौड़ पड़े, शायद फिर से कोई इमरजेंसी आ गयी थी  |५ मिनट बाद ही डा. साहिबा भी अपनी केबिन से निकल कर उसे देखने चली गयीं | मैं लाइन से हट कर फिर से कुर्सी पर  बैठ गयी अपने न. के इन्तजार में ||


मीना पाठक

Thursday, September 12, 2013

बेटों पर भी निगाह रखना जरूरी

वो बार- बार घड़ी देखती और बेचैनी से दरवाजे  की तरफ देखने लगती  |५ बजे ही आ जाना था उसे अभी तक नही आया , कोचिंग के टीचर को भी फोन कर चुकी उन्होंने तो ४:३० बजे ही छोड़ दिया था पर अभी तक ........
सरोज का दिल बैठा जा रहा था | उसे यूँ परेशान देख कर उसकी सास मुंह बना कर बोली "अरी महारानी बेटा है वो तेरा कोई बेटी ना है जो तू इतनी परेशान है |" सरोज बोली " माँ जी यही उम्र है बिगड़ने और बनने  की इस समय अगर निगाह नहीं रखूँगी तो समय हाथ से निकल जाएगा | आप लोगो ने जीवन भर लडकियों पर रोक लगाया ना जाने कितनी पाबंदियां  लगाई, उन के ऊपर निगाह रखा की वो कब क्या कर रही है, कहाँ जा रहीं हैं और लड़कों को सर पर चाढाया पर अब समय आ गया है की वो सारी  पाबंदियां बेटो पर भी लगाई जाए, उन पर भी निगाह रखा जाय की वो कब और कहाँ  जा रहें हैं क्या कर रहे है,
किस किस के साथ उनका उठाना बैठना है | शाम तक घर में आ जाना है और रात में उन्हें घर से बाहर नही निकलना है ये सारी पाबंदियां  उन पर भी होनी चाहिए | गेट पर खट की आवाज सुन कर सरोज दौड़ कर गेट खोलने आई देखा तो हाथ में फ़ाइल लिए बेटा कुछ डरा हुआ सा सायकिल लिए खड़ा था | सरोज वहीँ शुरू हो गयी " कहाँ थे अभी तक, कोचिंग तो तुम्हारी कब की छूट गयी थी फिर तुम इस समय तक क्या कर रहे थे |  बेटा बोला मम्मी प्रोजेक्ट की फ़ाइल बना रहा था रोहित के साथ उसी के घर में देर लग गयी, उसके पापा मुझे छोड़ने आये है आप चाहो तो उनसे पूछ लो  | सरोज ने देखा स्कूटर पर एक महाशय बैठे हुए थे उन्होंने एक पैर ज़मीन पर टिका रखा था | उन्होंने बताया आप परेशान ना हो ये बच्चा मेरे घर पर ही था, देर हो गयी थी इसी लिए मैं खुद इनके साथ आया हूँ  | ये सुन कर सरोज को तसल्ली हुई | बेटे को हिदायत देती हुयी बोली आगे से ऐसी गलती न हो मुझे पता होना चाहिए कि तुम कहाँ हो और किसके साथ हो | बेटे ने सिर हिला कर हामी भरी तब जा कर सरोज ने उसे अन्दर आने का रास्ता दिया |



मीना पाठक

शापित

                           माँ का घर , यानी कि मायका! मायके जाने की खुशी ही अलग होती है। अपने परिवार के साथ-साथ बचपन के दोस्तों के साथ मिलन...