ये हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है ? कैसी शिक्षा ? कैसा विकाश और कैसे अच्छे
दिन हैं ये ? जहाँ एक स्त्री सुरक्षित नहीं !!
आये दिन बलात्कार और तेज़ाब फैंकने की ख़बरें सुन कर और अखबारों में पढ़ कर मन बहुत आहत होता है | एक स्त्री, जो जन्म देती है पुरुष को, उसी पुरुष द्वारा बर्बरता की शिकार होती है | कभी तेज़ाब फैंक कर, कभी सामूहिक बलात्कार तो कभी घरेलू हिंसा द्वारा उसे प्रताड़ित किया जाता है | जिस घर समाज या राष्ट्र में स्त्री का सम्मान नहीं वो क्या उत्थान करेगा ? वो तो पतन की दिशा में जा रहा है |
जिस देश में कन्याएं पूजी जातीं हैं उसी देश में छोटी-छोटी कन्याओं के साथ जघन्य अपराध हो रहा है | कैसे दोयम दर्जे के विचार हैं ? कैसा दोहरा व्यक्तित्व है, दोहरा चरित्र है ?...धिक्कार है ऐसे लोगों पर जो नारी देह को सिर्फ भोगना चाहते हैं, चाहे वो तीन वर्ष की बच्ची हो, बीस वर्ष की युवा या पैंतालीस वर्ष की पौढ; इन्हें तो बस् एक स्त्री देह चाहिए बस् !!
जब व्यास पीठ पर बैठे धर्म के रक्षक ये कहते हैं कि “जब आप अपनी संपत्ति, सोना, चाँदी, हीरे, जवाहरात, रूपये आदि अपनी तिजोरी में रखते हैं तो बेटियों को सड़क पर क्यों छोड़ देते हैं ? उन्हें रात में बाहर क्यों निकलने देते हैं ?” ऐसे वक्तव्यों से उन मानसिक रोगियों के हौसले बुलंद होते हैं, जो स्त्री देह को मात्र भोग की वस्तु समझते हैं |
पति को परमेश्वर मानने, उनकी हर आज्ञा का पालन करने और तमाम उम्र व्रत उपवास की सीख स्त्री को देने वाले ये धर्मरक्षक क्या उन अमानुषिक प्रवृत्तियों को बढ़ावा नही दे रहे जो सारे नही तो बहुत से पतियों में विद्यमान है ? जिसके कारण बहुत सी स्त्रियाँ या तो आत्महत्या कर लेती हैं या घुट-घुट कर जीने को मजबूर रहती हैं |
मंचों से जो मठाधीश सिर्फ और सिर्फ स्त्रियों को ही तमाम उपदेश देते हैं वो समाज के पुरुषों को कोई उपदेश क्यों नही देते ? उन्हें क्यों नही कहते कि बेटियाँ घर में रहें या बाहर उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखें |
क्या बेटियाँ कोई संपत्ति या चीज हैं, जो हम तिजोरी में बंद कर दे उन्हें, घर से बाहर ही ना निकलने दें ?
जब सार्वजनिक मंचों से राजनेता ये कहते हैं कि “हो जाती है लड़कों से गलती कभी कभी” तो क्या असामाजिक तत्वों के हौसले बुलंद नही होते ? इस पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री आखिर कब तक शोषित रहेगीं ?
दिल्ली वाली घटना हो या लखनऊ वाली, दोनो घटनाओं के बारे में लोगों ने यही कहा कि “एक लड़के के साथ रात में क्यों गई ?” आये दिन ये घटनाएँ होती रहती हैं हर बार एक ही बात, अकेले क्यों गई ? रात को क्यों निकली ?
जब भी इस विषय पर चर्चा होती है; तो पुरुष वर्ग स्त्री को उसके पहनावे और उसके चरित्र पर उंगुली उठाने लगता है, वो रात को अकेले क्यों गई या अपने साथ किसी पुरुष को क्यों नही ले कर गई आदि आदि बातों की शिकायत करता हैं |
हम पूछते हैं, छोटी-छोटी बच्चियों के साथ क्यों बलात्कार होता है ? उन्हें हम कैसे कपड़े पहनाएँ ? बताए कोई |
क्या महिलाएँ रात में अपनी ही गली, मुहल्ले, शहर और देश में अकेले नही निकल सकतीं, या दिन में भी क्या वो इन सब जगहों पर सुरक्षित हैं ??
क्या आधी आबादी को कभी भी सुरक्षा मिल पाएगी ??
क्या कभी वो अपने को सुरक्षित महसूस कर पाएंगी ??
क्या कभी उनके लिए भी अच्छे दिन आएंगे ??
बहुत से प्रश्न हैं जिनके उत्तर किसी के पास नहीं हैं | कौन देगा इन सवालों के जवाब ? कौन जिम्मेदार है इन सब घटनाओं का ? क़ानून, राजनेता, बाबाजी लोग या हम खुद ?
सोचना होगा, आत्म मंथन करना होगा कि कहीं ना कहीं इन सब घटनाओं के लिए हम भी जिम्मेदार हैं, शुरुआत हमें ही करनी होगी अपने-अपने परिवार से | हम बेटियों को शुरू से ही हजार नियम, कायदा-क़ानून, रीति-रिवाज, समझाने लगते हैं, मैं ये नही कहती कि ये हम सब गलत करते हैं; पर क्या अपने बेटों को भी कुछ समझाते हैं ? बेटी पर हर तरह की पाबंदी, पर क्या यही सब पाबंदियां बेटे पर भी लगाते हैं हम ?
आये दिन बलात्कार और तेज़ाब फैंकने की ख़बरें सुन कर और अखबारों में पढ़ कर मन बहुत आहत होता है | एक स्त्री, जो जन्म देती है पुरुष को, उसी पुरुष द्वारा बर्बरता की शिकार होती है | कभी तेज़ाब फैंक कर, कभी सामूहिक बलात्कार तो कभी घरेलू हिंसा द्वारा उसे प्रताड़ित किया जाता है | जिस घर समाज या राष्ट्र में स्त्री का सम्मान नहीं वो क्या उत्थान करेगा ? वो तो पतन की दिशा में जा रहा है |
जिस देश में कन्याएं पूजी जातीं हैं उसी देश में छोटी-छोटी कन्याओं के साथ जघन्य अपराध हो रहा है | कैसे दोयम दर्जे के विचार हैं ? कैसा दोहरा व्यक्तित्व है, दोहरा चरित्र है ?...धिक्कार है ऐसे लोगों पर जो नारी देह को सिर्फ भोगना चाहते हैं, चाहे वो तीन वर्ष की बच्ची हो, बीस वर्ष की युवा या पैंतालीस वर्ष की पौढ; इन्हें तो बस् एक स्त्री देह चाहिए बस् !!
जब व्यास पीठ पर बैठे धर्म के रक्षक ये कहते हैं कि “जब आप अपनी संपत्ति, सोना, चाँदी, हीरे, जवाहरात, रूपये आदि अपनी तिजोरी में रखते हैं तो बेटियों को सड़क पर क्यों छोड़ देते हैं ? उन्हें रात में बाहर क्यों निकलने देते हैं ?” ऐसे वक्तव्यों से उन मानसिक रोगियों के हौसले बुलंद होते हैं, जो स्त्री देह को मात्र भोग की वस्तु समझते हैं |
पति को परमेश्वर मानने, उनकी हर आज्ञा का पालन करने और तमाम उम्र व्रत उपवास की सीख स्त्री को देने वाले ये धर्मरक्षक क्या उन अमानुषिक प्रवृत्तियों को बढ़ावा नही दे रहे जो सारे नही तो बहुत से पतियों में विद्यमान है ? जिसके कारण बहुत सी स्त्रियाँ या तो आत्महत्या कर लेती हैं या घुट-घुट कर जीने को मजबूर रहती हैं |
मंचों से जो मठाधीश सिर्फ और सिर्फ स्त्रियों को ही तमाम उपदेश देते हैं वो समाज के पुरुषों को कोई उपदेश क्यों नही देते ? उन्हें क्यों नही कहते कि बेटियाँ घर में रहें या बाहर उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखें |
क्या बेटियाँ कोई संपत्ति या चीज हैं, जो हम तिजोरी में बंद कर दे उन्हें, घर से बाहर ही ना निकलने दें ?
जब सार्वजनिक मंचों से राजनेता ये कहते हैं कि “हो जाती है लड़कों से गलती कभी कभी” तो क्या असामाजिक तत्वों के हौसले बुलंद नही होते ? इस पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री आखिर कब तक शोषित रहेगीं ?
दिल्ली वाली घटना हो या लखनऊ वाली, दोनो घटनाओं के बारे में लोगों ने यही कहा कि “एक लड़के के साथ रात में क्यों गई ?” आये दिन ये घटनाएँ होती रहती हैं हर बार एक ही बात, अकेले क्यों गई ? रात को क्यों निकली ?
जब भी इस विषय पर चर्चा होती है; तो पुरुष वर्ग स्त्री को उसके पहनावे और उसके चरित्र पर उंगुली उठाने लगता है, वो रात को अकेले क्यों गई या अपने साथ किसी पुरुष को क्यों नही ले कर गई आदि आदि बातों की शिकायत करता हैं |
हम पूछते हैं, छोटी-छोटी बच्चियों के साथ क्यों बलात्कार होता है ? उन्हें हम कैसे कपड़े पहनाएँ ? बताए कोई |
क्या महिलाएँ रात में अपनी ही गली, मुहल्ले, शहर और देश में अकेले नही निकल सकतीं, या दिन में भी क्या वो इन सब जगहों पर सुरक्षित हैं ??
क्या आधी आबादी को कभी भी सुरक्षा मिल पाएगी ??
क्या कभी वो अपने को सुरक्षित महसूस कर पाएंगी ??
क्या कभी उनके लिए भी अच्छे दिन आएंगे ??
बहुत से प्रश्न हैं जिनके उत्तर किसी के पास नहीं हैं | कौन देगा इन सवालों के जवाब ? कौन जिम्मेदार है इन सब घटनाओं का ? क़ानून, राजनेता, बाबाजी लोग या हम खुद ?
सोचना होगा, आत्म मंथन करना होगा कि कहीं ना कहीं इन सब घटनाओं के लिए हम भी जिम्मेदार हैं, शुरुआत हमें ही करनी होगी अपने-अपने परिवार से | हम बेटियों को शुरू से ही हजार नियम, कायदा-क़ानून, रीति-रिवाज, समझाने लगते हैं, मैं ये नही कहती कि ये हम सब गलत करते हैं; पर क्या अपने बेटों को भी कुछ समझाते हैं ? बेटी पर हर तरह की पाबंदी, पर क्या यही सब पाबंदियां बेटे पर भी लगाते हैं हम ?
क्यों ???
आखिर संतान तो दोनों हमारी ही हैं, तो दोनों के पालन-पोषण में इतना अंतर क्यों ? सोचना होगा | हमें अपने बेटों को स्त्री का सम्मान करना सिखाना होगा इसके लिए हमारे समाज के पुरुष वर्ग को आगे आना होगा | जिन घरों में पुरुष स्त्रियों का सम्मान नही करते, उनके साथ घरेलू हिंसा करते हैं, उन्हें माँ-बहन की गालियाँ देते हैं, उन्हें बात-बात पर प्रताड़ित करते हैं, घर हो या सार्वजनीन स्थल कहीं भी अपने पति होने का दावा ठोक देते हैं उन्हें अपमानित करके, उन घरों के बेटों को ये सब विरासत में मिल जाता है और इस परम्परा को वो अपनी अगली पीढ़ी को दे देते है और वो अगली, इस तरह ये पीढ़ी दर पीढ़ी ‘खाज’ की तरह बढ़ता ही रहता है, इस तरह तो ये बुराई कभी खत्म ही नही होगी ! इसे रोकना होगा | जब घर के पुरुष अपने घर की स्त्रियों का सम्मान करेंगे तभी वो दूसरों की बहन बेटियों का भी सम्मान कर पायेंगे और अपनी अगली पीढ़ी को भी ये बात सिखा पायेंगे |
हम (आधी आबादी) राजनेताओं से पूछते हैं कि भगवान ना करें कि ऐसी ही दुर्घटना उनकी बहु-बेटियों के साथ हो तब भी क्या वो यही कहेंगे कि –“हो जाती है लड़को से गलती कभ-कभी ?”
हम उन समाज के ठेकेदारों से पूछना चाहते हैं कि क्या ऐसी बर्बरता उनकी बहू-बेटियों के साथ हो तब भी वो यही कहेंगे कि “उस स्त्री का चरित्र ठीक नही था या उसने भड़काऊ कपड़े पहने थे, तभी ऐसी घटना घटी !!”
सार्वजनिक मंचों या व्यास पीठ से कुछ ऐसा बोला जाना चाहिए कि समाज की बुराइयां खत्म हों, स्त्रियाँ निडर हो कर कहीं भी आ जा सकें | अपने घर के भीतर या बाहर निडर हो कर अपने ऊपर हो रहे अमानुषिक वर्ताव का विरोध कर सके, ये उनका भी दायित्व बनता है कि कुछ ऐसा बोलें कि अपराधी प्रवृत्ती वाले लोग भयभीत हों, कुछ भी ऐसा ना कहाँ जाय जिससे कि उनका हौसला बढ़े|
सबसे पहले समाज को स्त्रियों के प्रति अपनी सोच और नजरिया बदलना होगा | राजनीतिक स्तर के साथ-साथ पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर भी सुधार की जरुरत है | ऐसे लोगों (बलात्कारियों और तेज़ाब फैंकने वालों) का पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक वहिष्कार होना चाहिए जिससे उन्हें भय हो कि उन्हें क़ानून से बचाने वाला कोई नही और किसी तरह अगर क़ानून से बच भी गया तो परिवार और समाज उसे नही अपनाएगा, ये भय होना बहुत जरूरी है |
क़ानून में भी ऐसे अपराधी को जल्द से जल्द और कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए; स्वच्छ भारत के साथ अपराध मुक्त भारत हो, हम यही उम्मीद करते हैं; पर काश .........ऐसा हो !!!!
छन्न पकैया छन्न पकैया, ये कैसी आजादी |
सिसक-सिसक कर रोती अब भी, क्यूँ आधी आबादी ||
मीना पाठक
(पिछले वर्ष के कुछ तीखे शब्द और धटनाओं पर आधारित लेख | ईश्वर करें इस वर्ष ये घटनाएं ना दोहराई जाय)
आखिर संतान तो दोनों हमारी ही हैं, तो दोनों के पालन-पोषण में इतना अंतर क्यों ? सोचना होगा | हमें अपने बेटों को स्त्री का सम्मान करना सिखाना होगा इसके लिए हमारे समाज के पुरुष वर्ग को आगे आना होगा | जिन घरों में पुरुष स्त्रियों का सम्मान नही करते, उनके साथ घरेलू हिंसा करते हैं, उन्हें माँ-बहन की गालियाँ देते हैं, उन्हें बात-बात पर प्रताड़ित करते हैं, घर हो या सार्वजनीन स्थल कहीं भी अपने पति होने का दावा ठोक देते हैं उन्हें अपमानित करके, उन घरों के बेटों को ये सब विरासत में मिल जाता है और इस परम्परा को वो अपनी अगली पीढ़ी को दे देते है और वो अगली, इस तरह ये पीढ़ी दर पीढ़ी ‘खाज’ की तरह बढ़ता ही रहता है, इस तरह तो ये बुराई कभी खत्म ही नही होगी ! इसे रोकना होगा | जब घर के पुरुष अपने घर की स्त्रियों का सम्मान करेंगे तभी वो दूसरों की बहन बेटियों का भी सम्मान कर पायेंगे और अपनी अगली पीढ़ी को भी ये बात सिखा पायेंगे |
हम (आधी आबादी) राजनेताओं से पूछते हैं कि भगवान ना करें कि ऐसी ही दुर्घटना उनकी बहु-बेटियों के साथ हो तब भी क्या वो यही कहेंगे कि –“हो जाती है लड़को से गलती कभ-कभी ?”
हम उन समाज के ठेकेदारों से पूछना चाहते हैं कि क्या ऐसी बर्बरता उनकी बहू-बेटियों के साथ हो तब भी वो यही कहेंगे कि “उस स्त्री का चरित्र ठीक नही था या उसने भड़काऊ कपड़े पहने थे, तभी ऐसी घटना घटी !!”
सार्वजनिक मंचों या व्यास पीठ से कुछ ऐसा बोला जाना चाहिए कि समाज की बुराइयां खत्म हों, स्त्रियाँ निडर हो कर कहीं भी आ जा सकें | अपने घर के भीतर या बाहर निडर हो कर अपने ऊपर हो रहे अमानुषिक वर्ताव का विरोध कर सके, ये उनका भी दायित्व बनता है कि कुछ ऐसा बोलें कि अपराधी प्रवृत्ती वाले लोग भयभीत हों, कुछ भी ऐसा ना कहाँ जाय जिससे कि उनका हौसला बढ़े|
सबसे पहले समाज को स्त्रियों के प्रति अपनी सोच और नजरिया बदलना होगा | राजनीतिक स्तर के साथ-साथ पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर भी सुधार की जरुरत है | ऐसे लोगों (बलात्कारियों और तेज़ाब फैंकने वालों) का पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक वहिष्कार होना चाहिए जिससे उन्हें भय हो कि उन्हें क़ानून से बचाने वाला कोई नही और किसी तरह अगर क़ानून से बच भी गया तो परिवार और समाज उसे नही अपनाएगा, ये भय होना बहुत जरूरी है |
क़ानून में भी ऐसे अपराधी को जल्द से जल्द और कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए; स्वच्छ भारत के साथ अपराध मुक्त भारत हो, हम यही उम्मीद करते हैं; पर काश .........ऐसा हो !!!!
छन्न पकैया छन्न पकैया, ये कैसी आजादी |
सिसक-सिसक कर रोती अब भी, क्यूँ आधी आबादी ||
मीना पाठक
(पिछले वर्ष के कुछ तीखे शब्द और धटनाओं पर आधारित लेख | ईश्वर करें इस वर्ष ये घटनाएं ना दोहराई जाय)
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